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________________ - से उनकी उम्र क्रमशः 5 वर्ष, 2, वर्ष और एक वर्ष हुई। तुम्हारी पत्नी को अर्थात् सेठानी को अभी धर्म पर अटल विश्वास नहीं है। धार्मिक क्रिया करती है, परन्तु देखा-देखी संयम के पालने में झूल रही है और तुम स्वयं धर्म के नाम से अनभिज्ञ हो। दिनरात परिग्रह जुटाने और खाने-पीने में मस्त हो, इसलिए तुम्हारा जन्म नहीं हुआ है। ___ ताजे खाते हो या बासी, इसका तात्पर्य यह था कि तुम्हारे घर में कोई दान-पूजा, संयमाचरण आदि अनुष्ठान होते हैं कि नहीं। उसका उत्तर था जो पूर्व भव में उपार्जित पुण्य है। उसके फल को भोग रहे हैं अर्थात् बासी खा रहे हैं। इसलिए भूखे सो रहे हैं। ___ बालमुनि के इस रहस्यपूर्ण मधुर ज्ञानप्रद वार्तालाप को सुनकर सेठ का क्रोध रूपी ज्वर उतर जाता है और सेठ मुनिराज के चरणों में गिरकर क्षमा याचना करने लगता है। कहता है-'गुरुदेव हम लोग वास्तव में बासी खा रहे हैं। मानव जैसे उत्तम तन को पाकर पशु के समान आचरण कर रहे हैं। विषय वासनाओं के कीड़े बने हुए हैं, इसलिए वास्तव में मेरा अभी जन्म नहीं हुआ है। अब मेरा हृदय पश्चाताप से जल रहा है। आपके सदुपदेश ने मेरे अज्ञान रूपी नेत्र खोल दिये हैं। मुनिराज कहते हैं कि अभी समय है। जो बीत गया सो बीत गया। बचे जीवन का प्रत्येक-क्षण मूल्यवान् है। तत्त्वज्ञान प्राप्त करो, षट् आवश्यक प्रतिदिन पालो और अपना कल्याण करो। क्योंकि इस संसार में ज्ञान प्राप्त करना ही दुर्लभ है। ___ अतः स्पष्ट है कि षट् आवश्यक कुछ ऐसे धार्मिक कार्य हैं जो केवल मनुष्य पर्याय में ही सम्पन्न हो सकते हैं। ये कार्य किसी भी इन्द्रिय के आधीन नहीं होते इसलिए इन्हें आवश्यक कहते हैं। अतः जो अवश हो उन्हें अवश्य करना चाहिए। ये ऐसे आवश्यक कार्य हैं जिनके द्वारा चाहे गृहस्थ हो और चाहे मुनि हो, दोनों का कल्याण होता है। अपनी-अपनी भूमिकानुसार दोनों को ये षट आवश्यकों का पालन करना बताया गया है। जो मनुष्य इनकी अवहेलना करता है, इन्हें नहीं पालता, वह पशु के समान ही माना जायेगा। क्योंकि जिसके जीवन में धर्म नहीं है, उसका जीवन जीना व्यर्थ है। ये मनुष्य भव बहुत कठिनाइयों से मिलता है, इस पर्याय को प्राप्त करके इसे भोजन, निद्रा, भय और मैथुन में खोना बिलकुल मूर्खता है, ये सब क्रियाएँ तो मनुष्य और पशु में समान हैं। ___ आज के इस भौतिक युग में, फैशन की अन्धी दौड़ में, अधिकतर मनुष्य अपने ये षट् आवश्यक भूलं गये हैं, इसलिए उनको सुख-शान्ति का अनुभव नहीं होता। मानव जीवन आत्मविश्वास करने के लिए होता है। अपने पूर्व और वर्तमान के कष्टों का स्मरण करके आवश्यक कार्य अवश्य करना चाहिए। इस प्रकार अपने मानव जीवन को सार्थक बनाना चाहिए। 339
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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