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________________ प्रात: उठते ही चाय-कॉफी पीना; धन की पूजा करना- धन प्राप्ति के लिए कुछ भी कार्य कर डालना, उचित-अनुचित का विचार न रखना। पान-सिगरेट, गुटका, तम्बाकू आदि का खाना। चमकते हुए जूते-कपड़े पहनकर टिप-टॉप से रहना। सिनेमा, टी.वी., केबल देखना और होटलों में खाना खाना। उपर्युक्त आधुनिक षट् आवश्यक नरक-निगोद में ले जाने वाले हैं। इनको छोड़कर अपने धार्मिक षट् आवश्यकों का पालन करना चाहिए, जिससे इसी भव में कल्याण को प्राप्त होने की भूमिका तैयार हो सके तभी मानव जीवन सार्थक है अन्यथा सब कुछ व्यर्थ है। इस तथ्य को समझने के लिए निम्न दृष्टान्त को देखें। शादी या बर्बादी किसी नगर में वीर्यसागरदत्त और उनकी धर्मपत्नी सागरदत्ता नाम के दो श्रावक रहते थे। कुछ समय उपरान्त सागरदत्ता की कुक्षि से एक कन्या-रत्न का जन्म होता है। पिता ने कन्या का नाम सरला रखा। वास्तव में वह सरला ही थी। जब वह पाँच वर्ष की हुयी तो उसे गुरुकुल में शिक्षा के लिए भेजा गया। शिक्षित होकर वह घर वापस लौटी और माता-पिता को नमस्कार करके विनयपूर्वक माता के समीप-बैठ जाती है। यद्यपि वह शरीर से अभी बालिका ही थी परन्तु विचारों में प्रौढ़ और गम्भीर थी। उसकी गम्भीर और शान्त मुद्रा को पिता सागरदत्त बार-बार देखते, किन्तु उनके नेत्र तृप्त नहीं होते थे। कुछ समय बाद उसकी युवा अवस्था को देखकर उसके हृदय में उसकी शादी के विचार उभरने लगे। ठीक ही है, लड़की कितनी भी सुन्दर, विनयशील, मनमोहक क्यों न हो, उसको दूसरे के घर जाना ही पड़ता है। अत: एक दिन सागरदत्त ने अपनी प्रिय पुत्री का विवाह रामदत्त के साथ कर दिया। जब पुत्री जन्म देने वाली माता और पिता से विदा होने लगी तो उसका हृदय वियोग से भर जाता है। नेत्रों से अश्रू टपकने लगते हैं। उसका मन विषय वासनाओं को धिक्कारने लगता है। वह विचारने लगती है कि क्षणिक इन्द्रिय सुख के लिए मुझे अपने माता-पिता को छोड़कर कहाँ जाना पड़ रहा है, वास्तव में वे ही महिलाएं धन्य हैं जिन्होंने चन्दना, अनन्तमती आदि के समान विषय वासनाओं के चक्रव्यूह में न फस कर आत्मकल्याण किया। वह सोचती है कि मैं सब कुछ जानती हुई भी मोह के वशीभूत होकर दुःख की नदी में गिरने जा रही हूँ। क्योंकि शादी करना, अपने जीवन को नष्ट करना ही है। एक कवि ने कहा है फूलो-फूलो फिर रहयो, आज हमारो विवाह। मूर्ख गाय बजाय के, बेड़ी पहरन जाये। यह मनुष्य विवाह के समय बहुत खुश होता है, किन्तु वह उस मूर्ख के समान है जिसको - 335 %3
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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