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________________ पालकी का मूल्य तृतीय काल के अन्त समय में ऋषभदेव राज्य करते थे। एक बार वे अपने महल में नीलांजना का नृत्य देख रहे थे। तभी नीलांजना की मृत्यु हो जाती है, किन्तु इन्द्र अपनी शक्ति से शीघ्र दूसरी नीलांजना का रूप बना देते हैं, सभा में किसी को अवगत नहीं होता है कि नर्तकी नीलांजना की मृत्यु कब हो गयी। परन्तु ऋषभदेव इस परिवर्तन को जान जाते हैं और जीवन की क्षणभंगुरता को देख स्वयं के जीवन से विरक्त हो जाते हैं। जब भगवान तप के लिए जंगल जाने लगते हैं तो देव, मनुष्य और विद्याधर भगवान की पालकी को वन में ले जाने हेतु खूब सजाते हैं। इसी बीच एक घटना घटित हो जाती है। इन्द्र और मनुष्यों में विवाद हो जाता है कि भगवान की पालकी पहले कौन उठायेगा । इन्द्र कहता है मैं पहले उठाऊँगा और मनुष्य कहते हैं कि पहले हम उठायेंगे। जब विवाद बढ़ जाता है तो निर्णय नाभिराय पर छोड़ दिया जाता है कि पहले पालकी को कौन उठायेगा, ऋषभदेव के पिता राजा नाभिराय से इन्द्र कहते हैं कि मैंने भगवान का गर्भ जन्म कल्याणक मनाया, नगरी में रत्न बरसाये, इसलिए भगवान की पालकी सर्वप्रथम हम उठायेंगे। राजा नाभिराय पर इन्द्र के कहने का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। वे कहते हैं कि भगवान तपस्या हेतु वन जा रहे हैं। तप केवल मनुष्य ही कर सकता है। तुम नहीं कर सकते हो इसलिए पालकी को पहले मनुष्य ही उठाएँगे, बाद में देवता । तब इन्द्र कहता है कि मैं एक साथ 170 समवशरण लगा सकता हूँ और एक समवशरण में 100 चक्रवर्ति की सम्पदा लगती है। अरे मनुष्यों! तुम मेरी यह सारी सम्पदा ले लो, किन्तु कुछ समय के लिए मुझे मनुष्य जन्म दे दो, जिससे मैं भगवान की पालकी उठा सकूँ। मनुष्य भव का कितना मूल्य है यह अधिकांश मानव नहीं जानते। इसे भोग-विलास में खोना, पंचेन्द्रिय के विषयों में फँस करके इस जीवन को नष्ट करना महामूर्खता है। अगर इस मनुष्य पर्याय में कल्याण नहीं किया, तो क्या मालूम यह पुरुष भव अन्तिम अर्थात् हो और पुनः निगोद जाना पड़े। मनुष्य जन्म की सार्थकता आत्मा के विकास करने में है। आत्मा का विकास स्व-पर भेद विज्ञान से होता है, जिसके सद्भाव में आत्मा सुमार्ग गामी होता है। सुमार्ग वही होता है जिसमें आत्मपरिणति निर्मल हो जाती है। इसलिए प्रत्येक गृहस्थ को षट् आवश्यकों का प्रतिदिन उत्साह से पालन करना चाहिए। खेद का विषय है कि आज अधिकांश मनुष्य (विशेषत: जैन भाई) अपने षट् : आवश्यकों को भूलते जा रहे हैं। इस आधुनिक युग की अन्धी दौड़ में, उसने अपने षट् आवश्यकों को निम्न प्रकार परिवर्तित कर लिया है चायपूजा धनोपास्ति सिगरेटम् बूटपालिशम् । सिनेमा - टी.वी. च गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने । 334
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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