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________________ हा (1) देवपूजा (2) गुरूपासना (3) शास्त्र-स्वाध्याय (4) संयमधर्म का पालन | (5) तपश्चर्या और (6) पात्रदान। ये श्रावकों के धार्मिक षट् आवश्यक कार्य होते हैं, जिन्हें प्रत्येक गृहस्थ को करना चाहिए। इन षट् कार्यों का विस्तृत वर्णन निम्न प्रकार है___धर्माचरणहीन व्यक्ति मूर्ख हैं। जो मनुष्य उत्तम कुल, सम्पत्ति, सत्कुटुम्ब आदि को प्राप्त करके भी धार्मिक क्रियाओं को नहीं करता, वह व्यक्ति अज्ञानी, मूर्ख है। पशु से भी निम्न कोटि का है। धर्म का आचरण करने से संसार भ्रमण का नाश होता है और संसार के नाश होने से अनन्त सुख की प्राप्ति होती है। एक व्यापारी बहुत धनवान था। वह अपने व्यापार को बढ़ाने के लिए एक बहुत बड़ी और सुन्दर दुकान सोने-चाँदी, जवाहरात, हीरे-मोतियों की सर्राफे बाजार में खोलता है। उसमें बहुत सुन्दर फर्नीचर लगवाता है, सजाता है। बेचने के लिए माल भी ले आता है, किन्तु सब माल तिजोरियों में बन्द कर देता है। तत्पश्चात् वह नया माल लाता है कोयले का और कोयला बेचना प्रारम्भ कर देता है। इस प्रकार जो करने योग्य कार्य है उसे न करके उल्टा कार्य करता है, मनुष्य उसे मूर्ख और पागल नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे? ठीक इसी प्रकार की स्थिति उस मनुष्य की है जो अपने इस दुर्लभ मानव पर्याय को अपने इस शरीर रूपी सोने-चाँदी की दुकान में षट् आवश्यक रूपी सोने-चाँदी का व्यापार नहीं करता, अपितु भोग-विषय रूपी कोयलों का व्यापार करने लगता है और धीरे-धीरे अपनी मनुष्य पर्याय खो देता है। इस प्रकार श्रावक को षट् आवश्यक कार्य प्रतिदिन नियम से करने चाहिए, तभी व्यक्ति सुखी हो सकता है और मुक्त भी हो सकता है। मानव जीवन की दुर्लभता और उसकी उपयोगिता-अनादि काल से आज तक इस जीव का अधिकांश समय निगोद में बीता है। निगोद एक इन्द्रिय प्राणी होता है जहाँ यह एक श्वास में अट्ठारह बार जन्म-मरण करता है और घोर दुःख को सहता रहता है। जब किसी पुण्य के उदय से निगोद से निकलकर यह जीव दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय आदि त्रस पर्याय में जाता है तब त्रस पर्याय का काल उसे दो हजार सागर का मिलता है। इस काल में वह सभी संभव योनियों में भ्रमण करता है। इस अवधि में मनुष्य पर्याय के 48 भव मिलते हैं जिसमें 24 भव नपुंसक पर्याय के 16 भव स्त्री पर्याय के और 8 पुरुष पर्याय के मिलते हैं। यदि इस पुरुष पर्याय में जीव अपना कल्याण नहीं कर पाता है। तो फिर निगोद में दो हजार सागर पूर्ण कर वापस चला जाता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य पर्याय ही दुर्लभ है। इस पर्याय को देव, इन्द्र, अहमिंद्र भी पाने को तैयार हैं। मानव पर्याय की दुर्लभता निम्न दृष्टान्त में दृष्टव्य है - 333
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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