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________________ जब कल्पवृक्षों की सत्ता समाप्त होने लगी और चतुर्थकाल का प्रारम्भ था तब अन्तिम चौदहवें कुलकर (मनु) नाभिराय और पत्नी मरुदेवी से ऋषभदेव का जन्म होता है। ऋषभदेव के समय में प्रजा के सामने जीवन-यापन की समस्या विकट हो गई थी, क्योंकि जिन कल्पवृक्षों से लोग अपना जीवन निर्वाह करते आये थे, प्राय: लुप्त हो चुके थे और जो नई वनस्पतियाँ पृथ्वी पर उत्पन्न हुई थीं, उनका उपयोग करना वे नहीं जानते थे। ऋषभदेव ने प्रजा को उगे हुए इक्षु-दण्डों से रस निकालकर खाना सिखलाया। इसलिए इनका वंश इक्ष्वाकुवंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ और ये उनके आदिपुरुष कहलाये। प्रजा की इस विकट स्थिति में उन्होंने प्रजा को असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प और विज्ञान इन षट् कर्मों से आजीविका करना बतलाया। व्यवस्था को चलाने के लिए उन्होंने तीन वर्गों की स्थापना की। जिनको रक्षा का भार दिया गया वे क्षत्रिय कहलाये; जिन्हें खेती-व्यापार आदि का कार्य दिया गया वे वैश्य कहलाये और जो सेवावृत्ति करने के योग्य समझे गये, उन्हें शूद्र नाम से पुकारा गया। आगे चलकर इनके पुत्र भरत ने एक और नए वर्ग की स्थापना की जो पठन-पठन का कार्य करता था, उसे उन्होंने ब्राह्मण वर्ग के नाम से पुकारा। तब से लेकर आजतक ऐसी सामाजिक व्यवस्था चली आ रही है। ___ गृहस्थों को छह कार्य प्रतिदिन अपने घर-गृहस्थी उदरपूर्ति और घर को स्वच्छ रखने के लिए भी करने पड़ते हैं। वे इस प्रकार हैं 1. चक्की चलाना-आज इसका स्थान बड़ी-बड़ी आटामिलों (फ्लोरमिल्स) ने ले लिया है। 2. चूल्हा जलाना-आज इसका स्थान खाना बनाने की गैस ने ले लिया है। 3. ओखली-आज इसका स्थान मिक्सी, ग्राइंडर आदि मशीनों ने ले लिया है। 4. पानी भरना-आज इसका स्थान जैटपम्प और ट्यूब-वैल ले चुके हैं। 5. बुहारी देना-इसका स्थान आज क्लीनर और वाईपर ले चुके हैं। 6. व्यापार करना-उचित आजीविका का उपार्जन करना। उपर्युक्त छह कार्यों के बिना भोजन तैयार नहीं हो सकता। इसके लिए गृहस्थों को आरम्भ, परिग्रह आदि रूप बहुत दोष लगते हैं। उन दोषों को दूर करने के लिए गृहस्थों को आचार्यों ने षट् आवश्यक कार्य प्रतिदिन करने के लिए कहा है। गृहस्थों के षट् आवश्यक कार्य निम्न हैं-आचार्य पद्मनन्दि कहते हैं देवपूजा गुरुपास्ति स्वाध्यायः संयमस्तपः। दानं चैव गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने-दिने॥१॥ (पद्यनन्धि पंचविंशतिका) % 3D %E 332
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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