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________________ एकादश अध्याय : गृहस्थों के षट् आवश्यक आज का विषय 'गृहस्थों के षट् आवश्यक हैं, '। मानव जीवन एक महान् जीवन है। क्योंकि सभी पर्यायों में यह मानव पर्याय उत्तम है। कर्म प्रेरित होकर चौरासी लाख योनियों में भटककर, भ्रमणकर, यह मनुष्य पर्याय हमें प्राप्त हुई है । अतः इसकी सार्थकता धर्म करने में ही है, जैसा कहा भी है आहारनिद्राभयमैथुनञ्च सामान्यमेतद् पशुभिर्नराणाम् ॥ धर्मो हि तेषामधिको विशेषः धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥ भोजन, निद्रा, भय और मैथुन क्रियायें मनुष्य और पशु में समान रूप से हैं। मनुष्यों में केवल धर्म ही विशेष है, जो इन्हें तिर्यंचों से अलग करता है। धर्म से हीन मनुष्य पशु के समान है आज हमें सभी सुलभ एवं अनुकूल साधन मिले हुए हैं। अच्छा कुल, पूर्ण स्वस्थ शरीर, साक्षात् दिगम्बर मुनिराजों के दर्शन एवं धर्मोपदेश, फिर भी यदि जीवन में शान्ति नहीं मिली, सुख का अनुभव नहीं हुआ, फिर इस मनुष्य पर्याय पाने का क्या लाभ । आज मानव जीवन की प्रत्येक दिशा में तीव्र अशान्ति का नग्न ताण्डव नृत्य हो रहा है। चारों ओर पाप, पाखण्ड, अन्याय और अत्याचार का ही साम्राज्य छाया हुआ है। शक्तिशाली बलहीनों को, धनवान निर्धनों को, उच्च जाति, नीच जाति को, राजा प्रजा को और भाई-भाई को सताकर, धोखा देकर यहाँ तक की उसका सर्वस्व हरण करके भी अपनी आसुरी इच्छाओं को तृप्त नहीं कर पा रहा है। न केवल सामाजिक अपितु राजनैतिक क्षेत्र में भी युद्ध जैसे निर्दयतापूर्ण कार्य द्वारा नरसंहार आदि के भयानक दृश्य देखने को मिलते रहते हैं आज साम्राज्य लोलुपी वर्ग दुनिया के छोटे और शस्त्रहीन देशों के लोगों की स्वतंत्रता का अपहरण कर उसके धन-जन सर्वस्व को हड़पने पर तुले हुए हैं। इस प्रकार मनुष्य अपनी मानवता को कुचलकर एक खूँखार जंगली पशु से भी भयंकर रूप में दिखाई देता है तथा मार-काट, लूट-पाट का बाजार गर्म कर विश्व शान्ति का गला घोटता रहता है। सुन्दर शरीर मिलने, भोग-उपभोग पाने, या अनुचित कार्य करने, बहुत धनवान बनने, महान् उद्योगपति बनने, महान् अधिकारी या राजा सम्राट बनने से मनुष्य जन्म सफल नहीं होता। ऐसी बातों में तो देव मनुष्य से बहुत आगे हैं। अतः मनुष्य भव की सफलता उस धर्म की आराधना करने से है जो देव पर्याय में नहीं हो सकती और जिससे आत्मा का उत्थान हो वह साधना केवल मनुष्य पर्याय में ही संभव है। इस महान् और दुर्लभ मनुष्य पर्याय जिसमें संयम धारण हो सकता है, इन्द्र और अहमिन्द्र भी तरसते हैं, इस प्रकार यदि मोह को दूर करना चाहते हो तो संयम रूपी लक्ष्मी को स्वीकार करना होगा। राग-द्वेष रूपी वृक्ष को भेदना होगा और सम्यक्त्व का आलम्बन 330
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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