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में मोह-राग-द्वेष परिणाम उत्पन्न ही नहीं होते तथा व्यवहार अपरिग्रह - जिसमें समस्त बाह्य पर वस्तुओं के परिग्रह का त्याग आता है। बाह्य परिग्रह का त्याग भावों की विशुद्धि के लिए किया जाता है, परन्तु रागादिभाव रूप आभ्यन्तर परिग्रह के त्याग बिना बाह्य परिग्रह का त्याग निष्फल है । पर पदार्थ के छूटने से कोई अपरिग्रही नहीं होता, बल्कि उसके रखने का भाव, उसके प्रति एकत्वबुद्धि या ममत्व परिणाम छोड़ने से परिग्रह छूटता है।
इस प्रकार प्रत्येक नागरिक को विश्व की सम्पत्ति और उसकी चाह में तड़पने वाले असंख्य प्राणियों का विचार करके धन की तृष्णा से विरक्त हो जाना चाहिए, क्योंकि न्याय की कमाई से मनुष्य जीवन निर्वाह कर सकता है, किन्तु धन का अटूट भण्डार एकत्र नहीं कर सकता। अटूट भण्डार, पाप की कमाई से ही भरता है । सब पापों की जड़ होने से परिग्रह सबसे बड़ा पाप है। अतः भौतिक बोझ से कम होने पर ही मूर्च्छा से मुक्ति प्राप्त हो सकती है। इस तरह 'आत्म' तत्त्व के अतिरिक्त इस जगत् में मेरा कुछ भी, तिल - तुष मात्र भी अपना नहीं है, यह भावना दृढ़ होनी चाहिए।
उण ण दिट्ठ-समाओ विहयइ सच्चे व अलीए वा ।
अनेकान्त रूप समय के ज्ञाता पुरूष 'यह नय सच्चा है, यह नय झूठा' ऐसा विभाग नहीं करते हैं।
जिसे एक पद या अक्षर प्रमाण आगम भी नहीं रूचता हो उसे शेष बहुभाग आगम पर श्रद्धा होते हुए भी वह मिथ्यादृष्टि है।
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