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तब तुम्हें तुम्हारे लड़के मारने लगेंगे।' पंडित जी कहते हैं कि 'मैंने तो सारा धन अपने हाथों से कमाया है, मुझे वे क्यों रोकेंगे और मारेंगे,' स्वप्न भंग हो जाता है, आँख खुल जाती है।
पंडित जी अपने घर जाते हैं और अपने लड़कों से कहते हैं कि बेटा तुम सब दान किया करो, दान करने से लक्ष्मी आती हैं। लड़के कहते हैं- 'पिता जी धनसंग्रह करने के लिए होता है, खोने के लिए नहीं।' बेटे पिता जी का कहना नहीं मानते। अब पंडित जी स्वयं दान देने की कोशिश करते हैं। परन्तु जब भी कुछ दान देते बेटे पण्डित जी की दुर्दशा कर देते ।
पंडित जी सोचते काश! मैं प्रारम्भ से ही दान में प्रवृत्ति रखता तो बच्चों को भी वही अभ्यास रहता और मेरी भी दुर्दशा न होती।
अपरिग्रहव्रत के अतिचार
क्षेत्रवास्तु हिरण्यसुवर्ण धनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रमाः ।।
( तत्वार्थ सूत्र. अ. 7.29 )
1. क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिक्रम - क्षेत्र और रहने के स्थान के परिमाण का उल्लंघन करना । 2. हिरण्यसुवर्णप्रमाणातिक्रम-चाँदी और सोने के परिमाण का उल्लंघन करना ।
3. धनधान्यप्रमाणातिक्रम-धन (रुपया-पैसा-पशु आदि) और धान्य ( फसल आदि) के परिमाण का उल्लंघन करना।
4. दासीदासप्रमाणातिक्रम-दासी और दास के परिमाण का उल्लंघन करना ।
5. कुप्यप्रमाणातिक्रम - वस्त्र, बर्तन आदि के परिमाण का उल्लंघन करना ।
ये पाँच अपरिग्रह व्रत के दोष या अतिचार माने जाते हैं। इन्हें अपने व्रत में नहीं लगने देना चाहिए।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पर में एकत्व बुद्धि और लीनता का अभाव ही अपरिग्रह व्रत है। यही आकिंचन्य आत्मा का धर्म है। परिग्रह के त्याग से ही आकिंचन्य धर्म प्रकट होता है । यह परिग्रह चौदह प्रकार का अन्तरंग और दस प्रकार का बाह्य रूप, कुल चौबीस भेद रूप होता है। यह अपरिग्रहव्रत भी दो प्रकार से पाला जाता है। एक तो समस्त अन्तर बाह्य परिग्रह से विरक्त हो महाव्रत के रूप में, जिसे केवल मुनि हो पाल सकते हैं, जो जिनलिंग धारण करके अपने आत्मा में रहते हैं। दूसरे एकदेश अन्तर-बाह्य परिग्रह का प्रमाण करके अणुव्रत के रूप
- जिसे गृहस्थ लोग पालते हैं। परिग्रह पाप रूप ही है, क्योंकि इसमें स्व और पर दोनों की हिंसा होती है। वास्तव में परिग्रह जीव को आकुल-व्याकुल करता है। यह एक ऐसी मृगतृष्णा है जो कभी भी पूरी नहीं होती। यह अपरिग्रह भी दो प्रकार का है। निश्चय अपरिग्रह - जिसमें आत्मा
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