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________________ पाँचों इन्द्रियों के इष्ट विषयों में राग और अनिष्ट विषयों में द्वेष नहीं करना, ये अपरिग्रह व्रत की पाँच भावनाएँ हैं। यहाँ यह बात स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि इन्द्रियाँ दो प्रकार की होती हैं- (1) द्रव्येन्द्रिय और (2) भावेन्द्रिय । भावेन्द्रिय ज्ञान का विकास है, वह जिन पदार्थों को जानती है वे पदार्थ ज्ञान के विषय होने से ज्ञेय हैं, किन्तु यदि उनके प्रति राग-द्वेष किया जाए तो उसे उपचार से इन्द्रियों का विषय कहा जाता है। वास्तव में वह विषय (ज्ञेयपदार्थ) स्वयं इष्ट या अनिष्ट नहीं, किन्तु जिस समय जीव राग-द्वेष करता है, तब उपचार से उन पदार्थों को इष्ट या अनिष्ट कहा जाता है। यहाँ आचार्य उन पदार्थों से राग-द्वेष छोड़ने की भावना करने के लिए कहते हैं। उपर्युक्त सूत्र में (1) स्पर्शन - इन्द्रिय; (2) रसना इन्द्रिय; (3) घ्राण इन्द्रिय; (4) चक्षु - इन्द्रिय; और (5) कर्ण इन्द्रिय के इष्ट अनिष्ट विषयों में राग-द्वेष नहीं करना बताया गया है। धनसंग्रह करना अज्ञानता धन का संग्रह करना अशान्ति को निमंत्रण देना है। समाज में, राज्य में, देश में और यहाँ तक कि पूरे विश्व में आज जो यह अशान्ति का वातावरण बना हुआ है, उसका कारण केवल परिग्रह है। यदि अपनी आवश्यकता से अधिक परिग्रह जोड़ने का, धन संचय करने का भाव न हो तो विश्व में शान्ति स्थापित होने में देर नहीं लगेगी। धन का संग्रह करना कितनी बड़ी अज्ञानता है यह बात निम्न दृष्टान्त द्वारा भी स्पष्ट हो जाती है पण्डित जी परिग्रह में बहुत लिप्त थे। न ठीक से खाते न पहनते, दिन-रात पैसा इकट्ठा करके ब्याज पर साहूकार के यहाँ भेज देते। एक दिन पण्डित जी विचार करने लगे कि मुझे पता लगाना चाहिए कि मेरा पैसा ठीक भी है या नहीं। पण्डित जी सेठ जी के यहाँ पहुँचते हैं और जाकर देखते हैं कि सेठ जी तो कोठी- बँगले में खूब आनन्द से रह रहे हैं। किसी बात की कमी नहीं है। फिर सोचते हैं कि पैसा तो मेरा है और आनन्द सेठ जी साहूकार ले रहे हैं। सेठ जी वहाँ पर नहीं थे। नौकरों ने पंडित जी के ठहरने का प्रबन्ध कर दिया। वे जानते थे कि इनके यहाँ से ही पैसा आता है। रात्रि में जब पंडित जी सो जाते हैं तो स्वप्न में लक्ष्मी कहती हैं कि 'आप कौन हैं', पंडित जी कहते हैं कि मैं तो पंडित हूँ। किन्तु 'आप कौन हैं, 'मैं लक्ष्मी हूँ', उधर से उत्तर मिलता है। पंडित जी कहते हैं कि 'तुम इसके यहाँ क्यों आती हो,' लक्ष्मी बोली- कि 'इस सेठ जी की मैं दासी हूँ, सेठ जी परिग्रह से मोह न रखकर दान देते हैं।' अब पंडित जी कहते हैं कि 'आप हमारे यहाँ क्यों नहीं आती,' तब लक्ष्मी कहती हैं कि-'आप तो पैसे के मोही हैं, इसीलिए मैं आपके पास नहीं आती।' पंडित जी कहते हैं कि-'जब हम दान देने लगेंगे तब तो हमारे पास आओगी न।' तब लक्ष्मी कहती हैं कि - 'जब तुम दान देने लगोगे 327
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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