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________________ है। नौकर के कहने पर नामन का गुस्सा शान्त होता है। वह जॉर्डन नदी में उतर जाता है नहाने के लिए। नदी में छळ बार डुबकी लगाता है लेकिन कोई अन्तर नहीं पड़ता, किन्तु जब सातवीं बार डुबकी लगाई तो उसका कोढ़ नष्ट हो जाता है। यह देख सब आश्चर्य चकित हो जाते हैं। अब नामन अपने बदन को देख बहुत प्रसन्न था तथा सन्त एलिसा के प्रति उसका मन श्रद्धा से भर जाता है। अब वह सन्त के पास पहुँचता है और उसके नौकर-चाकर सोने-चाँदी के थाल सजाकर भर-भरकर साथ लाते हैं। सेनापति सन्त के पैरों की धूल उठाकर मस्तक पर लगाता है और कहता है कि प्रभ भेंट स्वीकार कीजिए। किन्तु ऐलिसा को कोई लोभ नहीं था। कोई परिग्रह अपने पास वे नहीं रखते थे। अत: वे नामन को आशीर्वाद देते हुए कहते हैं कि यह सोने-चाँदी की भेंट अपने देश वापिस ले जाओ। मैं इसका क्या करूँगा। नामन भक्ति-भाव से इजराइल की थोड़ी सी मिट्टी बाँध लेता है। अब वह स्वयं नौकर-चाकरों के साथ सीरिया अपने देश वापिस चलने लगता है। यह सब एक शिष्य देख रहा था। उसे बहुत क्रोध आता है यह सब देखकर। सोचता है-यह सन्त कैसा मूर्ख है। सारा धन वापस कर दिया, हमारा कुछ ख्याल नहीं रखा। वह नामन के पीछे-पीछे दौड़ता है; नामन से कहता है कि सन्त के पास दो युवा साधु आ गये हैं, उनके लिए थोड़ा ध न छोड़ दीजिए। नामन यह सुनकर बड़ा प्रसन्न होता है और थोड़ा धन शिष्य को दे देता है। शिष्य वापस चला आता है। अब सन्त ऐलिसा, शिष्य से पूछते हैं कि-'कहाँ गए थे?' तब शिष्य कहता है कि यहीं था। सन्त तो सब जानते थे, कहने लगे कि तुम मेरे साथ रहकर भी लोभी हो और अब तो तुम्हारे पास इतना धन है कि जो चाहो खरीद सकते हो। हाँ, लेकिन एक बात सुन लो तुमने नामन का कोढ़ खरीद लिया है। यह कोढ़ तुम्हारी पीढ़ी में पुश्त दर पुश्त चलता रहेगा। यह कहते ही शिष्य के बदन में कोढ़ हो जाता है। वह शिष्य अन्ततोगत्वा निराश होकर जॉर्डन के ही जंगलों में कहीं खो जाता है। मनुष्य अपना सम्पूर्ण जीवन दूसरों की आँखों में झाँकने में गुजार देता है। दूसरे के दर्पण में उसका चेहरा रहता है और उसे अपना असली चेहरा समझता रहता है। कितनी बड़ी भूल है यह और ऐसी भूलें कितनी ही अपने जीवन में आप लोग करते हो। अपने आप को समझना होगा। अपनी चीज को जानकर उसमें रमना होगा। पर वस्तु से ममत्व को हटाना होगा तभी सुख-शान्ति का अनुभव हो सकता है। संग्रह दुःखों को आमन्त्रण देता है, त्याग-दान करना सुख प्राप्त करने का उपाय है। आचार्य उमास्वामी अपरिग्रह व्रत को दृढ़ करने के लिए कहते हैं किमनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पंच॥ (तत्त्वार्थसूत्र. अ..) 326 =
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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