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________________ अर्थहीन होते हैं इनका कोई महत्त्व नहीं होता, उसी प्रकार इन दोनों का जीवन होता है। अतः सम्यग्पुरुषार्थ पूर्वक अपने-अपने कर्तव्यों का गृहस्थ और मुनि को पालन करना चाहिए। इसी उपाय से दोनों के दुःखों का अन्त संभव है अन्यथा नहीं। आचार्य कुन्दकुन्द सकल परिग्रह त्याग के सन्दर्भ में मुनियों के लिए कह रहे हैं। जहजारूवसरिसो तिलतुसमित्तं ण गिहदि हत्थेसु । जइ इ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदम् ॥१८॥ मुनि यथाजात रूप होते हैं- जैसे जन्मता बालक नग्न रूप होता है, वैसे ही नग्नरूप, दिगम्बर रूप, मुनिराज का होता है। वह अपने पास कण मात्र भी कुछ परिग्रह नहीं रखते, तिल के छिलके के बराबर भी परिग्रह को ग्रहण नहीं करते। इसके विपरीत यदि ग्रहण करे तो वह मुनि निगोद को प्राप्त होता है। दूसरे शब्दों में यदि मुनिधर्म अंगीकार करके साधु अपने पास कुछ भी परिग्रह रखे तो वह जिनसूत्र की श्रद्धा रखने वाला कहाँ रहा, मिथ्यादृष्टि ही है और मिथ्यात्व का फल निगोद ही है। इसी प्रकार आचार्य आगे कहते हैं सम्मूहदि रक्खेदि य अट्टं झाएदि बहुपयत्तेण । सो पावमोहिदमदी तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥ (अष्टपाहुड-लिगपाहुड 5 ) जो निर्ग्रन्थ नग्न दिगम्बर वेष धारण करके भी जो बहुत प्रयत्न करके, बहुत यत्नपूर्वक परिग्रह को जोड़ता है, उसमें लिप्त होता है, उसमें सम्मोहित होता है, उसकी रक्षा करता है, उसके लिए आर्त्तध्यान करता है, वह पाप से मोहित बुद्धिवाला श्रमण, श्रमण नहीं, पशु के समान है, अज्ञानी है। इसके विपरीत जो मुनि अपने पास तिल-तुष मात्र भी परिग्रह नहीं रखता, अपनी आत्मा में लीन रहता है, उसमें नाना प्रकार की ऋद्धियाँ स्वतः ही प्रकट हो जाती हैं। उसके आशीर्वाद मात्र से ही संसारी दु:खी जनों का कष्ट मिटने लगता है। इस सन्दर्भ में निम्न दृष्टान्त पढ़ने योग्य है अपरिग्रह का चमत्कार ईसा से कई शताब्दी पहले इजराइल एवं सीरिया की सीमाएँ एक-दूसरे से मिली हुई थीं। उन दोनों देशों में प्राय: लड़ाइयाँ होती रहती थीं। सीरिया अधिक बलवान था अतः उसकी विजय हो जाया करती थी। उसी समय एक घटना घटती है। सीरिया का सेनापति नामन बड़ा ही बलवान एवं कुशल सेनापति था। जब वह लड़ाई करने मैदान में जाता तो ऐसा गरजता कि मानो शेर आ रहा हो। उसे देखकर सैनिकों की बाँहें फड़कने लगती तथा दुश्मन दूर से ही भागने लगता था। 324
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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