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सकलं विकलं चरणं तत्सकलं सर्वसंगविरतानाम् । अनगाराणां विकलं सागाराणां ससंगानाम् ॥
- रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 50
समस्त अन्तर - बाह्य परिग्रह से विरक्त जो अनगार अर्थात् घर नियत स्थान रहित वनखण्ड आदि में परम दयालु होकर निरालम्बी विचरण करते हैं। ऐसे ज्ञानी मुनीश्वरों के जो चारित्र होता है वह तो सकल चारित्र है और जो स्त्री, पुत्र, धन आदि परिग्रह सहित घर में ही निवास करते हैं, जिन वचनों के श्रद्धानी होते हैं, न्यायमार्ग का उल्लंघन नहीं करते हैं, पापों से भयभीत रहते हैं, ऐसे ज्ञानी गृहस्थों के विकल (एक देश) चारित्र होता है। दूसरे शब्दों में व्रत दो प्रकार के होते हैं- (1) अणुव्रत - इनका पालन गृहस्थ करते हैं। (2) महाव्रत - इनका मुनि पालन करते हैं। अणुव्रत में तो परिग्रह परिमाण सहित होता है जबकि महाव्रत में परिग्रह का सम्पूर्ण त्याग होता है।
इसलिए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि सर्वदेश त्याग न हो सके तो एक देश त्याग करना चाहिए
योsपि न शक्यस्त्यक्तुं धनधान्यमनुष्यवास्तुवित्तादि । सोऽपि तनूकरणीयो निवृत्तिरूपं यतस्तत्त्वं ॥
- पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 128
धन, धान्य, मनुष्य, गृह, सम्पदा इत्यादि परिग्रह सर्वथा छोड़ना शक्य न हो तो उसे कम कर देना चाहिए, क्योंकि त्यागरूप ही वस्तु का स्वरूप है। इस प्रकार अपनी सामर्थ्य अनुसार संयम को पालना चाहिए।
आगे आचार्य कहते हैं कि श्रावक को अपने कर्तव्य का निर्वाह करना चाहिए, धन का अर्जन धर्म नीति से करना ही श्रेष्ठ है, इसी प्रकार मुनि को अपने कर्तव्य का निर्वाह यथोचित रीति से करना चाहिए। दोनों यदि अपने कर्तव्य का जरा सा भी अतिक्रमण करें तो दोनों का जीवन बेकार है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए पं. बनारसीदास जी कहते हैं कि
गृही बना पर उद्यम बिन हो, धन से वंचित यदि रहता । श्रमण बना श्रामण्य रहित हो, धन में रंजित यदि रहता || ईख पुष्प आकाश पुष्पसम, इनका जीवन व्यर्थ रहा। सही-सही पुरुषार्थ बन्ध है, जिस बिन सब दुःख गति रहा।
यदि गृहस्थ पुरुषार्थ पूर्वक धन का अर्जन नहीं करता और मुनि यदि धन में आसक्ति रखे
तो दोनों का जीवन जीना व्यर्थ है, जिस प्रकार ईख का पुष्प और आकाश कुसुम दोनों ही
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