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अहो! ऐसी स्थिति होने पर भी अभिमानी जीव वैभव पाकर अभिमान करता है, परिग्रह के कारण गर्व करता है । धिक्कार है उनकी उल्टी समझ को, वे यह नहीं समझते कि सुख-शान्ति केवल अपरिग्रह में ही है।
सब वैभव होते हुए भी जो उससे अलिप्त रहता है उसमें मूर्छा नहीं करता वह मनुष्य अपने साथ-साथ देश का भी नाम उज्ज्वल करता है। इसका जीता-जागता उदाहरण हमारे देश के भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व. लालबहादुर शास्त्री जी हैं। उनका त्याग, उनका अपरिग्रहत्व भी अनुपम था। उनके जीवन की एक घटना निम्न दृष्टान्त के माध्यम से दे रहा हूँ
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शास्त्री जी की महानता
एक बार शास्त्री जी को चार पाँच साड़ियों की आवश्यकता पड़ी। अतः उसे क्रय करने के लिए वह सरकारी गाड़ी में एक कपड़ा मिल में जाते हैं। मिल का मैनेजर बहुत प्रसन्न होता है अपने सामने देश के प्रधानमंत्री को देखकर । वह बहुत आवभगत करता है, किन्तु शास्त्री जी उससे कहते हैं कि भाई मुझे अपने घर के लिए कुछ साड़ियाँ चाहिए, उन्हें दिखाओ। मैनेजर शास्त्री जी को एक से एक बढ़िया साड़ियाँ दिखाता है। कोई पाँच सौ रुपये की तो कोई छळ सौ रुपये की । शास्त्री जी कहते हैं कि भाई मुझे इतनी महँगी साड़ियाँ नहीं चाहिए, हल्की चाहिए, कम कीमत की दिखाओ । अब मैनेजर कहता है- सर आप इन्हें हल्की ही समझिये, इसके कोई दाम नहीं हैं, यह मेरा सौभाग्य है कि आप यहाँ आये। शास्त्री जी कहते हैं, यह सब नहीं चलेगा। मैं जो तुमसे कह रहा हूँ, उस पर ध्यान दो, मुझे कम कीमत की धोतियाँ दिखाओ और दाम बताते जाओ। तब मिल मालिक चार सौ तीन सौ की साड़ियाँ दिखाता है। शास्त्री जी फिर कहते हैं कि भाई मुझे पचीस रुपये के आसपास वाली साड़ियाँ चाहिए, इससे अधिक नहीं। विवश होकर वह मैनेजर पचीस रुपये वाली हल्की साड़ियाँ दिखाता है। शास्त्री जी उनमें से कुछ साड़ियाँ चुन लेते हैं। पूरी कीमत चुकाते हैं, मिल से बाहर आते हैं और अपनी कार में बैठ घर चले जाते हैं। यह है सादा जीवन, यह है विलासिता का त्याग, इसका नाम है संयम, इसका नाम है अपरिग्रह । आज संसार भर में शास्त्री जी का नाम प्रसिद्ध है।
परिग्रह त्याग करने का उपाय
इन्द्रियों के विषय मरीचिका के तुल्य हैं। सूर्य की किरणों के रेत में पड़ने से वन में मृगों को जल का भ्रम होता है, उसे मरीचिका कहते हैं। मृग जल समझकर उसके लिए दौड़ता है, वैसे ही लोग परिग्रह में सुख मानकर बड़ी उत्सुकता से इन्द्रियों के विषयों की ओर दौड़ते हैं। सर्वप्रथम
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