________________
इन विषयों को ही त्यागना चाहिए। इसके बाद समस्त आरम्भ त्यागकर छोड़ सकने योग्य सभी प्रकार के परिग्रहों को छोड़ देना चाहिए। बाल की नोक के बराबर भी छोड़ने योग्य परिग्रह को अपने पास नहीं रखना चाहिए। अपने पास न रखने से ऐसा आशय नहीं लेना चाहिए कि स्वयं न रखकर किसी दूसरे के अधिकार में रख दें, जैसा कि आजकल साधु संघ मोटर आदि रखते हैं और उसे किसी संघस्थ श्रावक को सौंप देते हैं। यह परिग्रह का त्याग नहीं है, अपितु उसका भोग है। यद्यपि साधु स्वयं मोटर में नहीं बैठते । उनका संकल्पजाल उसमें बराबर बना रहता है। अपरिग्रही साधु के लिए तो जो छोड़ा नहीं जा सकता, उस शरीर में भी ममत्व भाव त्यागने योग्य है। मोह के उदय से ममकार और अहंकार होते हैं। ममकार और अहंकार करने से आत्मा में राग होता है।
ममकार और अहंकार इन दोनों का स्वरूप इस प्रकार कहा है अपने शरीर वगैरह में 'यह मेरा है' अभिप्राय ममकार है। जो भाव कर्म जन्य है और निश्चयऩय से आत्मा से भिन्न हैं, उन्हें अपना मानना अहंकार है । जैसे मैं राजा हूँ। इस प्रकार जिस परिग्रह को छोड़ना शक्य नहीं है उसमें भी ममकार करना जब परिग्रह है तब जिसका त्याग कर चुके हैं उसे ही प्रकारान्तर से अपनाना तो परिग्रह है ही ।
आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि
तत्त्वार्थाश्रद्धाने निर्युक्तं प्रथममेव मिथ्यात्वम् । सम्यग्दर्शनचौराः प्रथमकषायाश्च चत्वारः ॥
- पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 124
पहले तत्त्वार्थ के अश्रद्धान में जिसने संयुक्त किया है ऐसा मिथ्यात्व और सम्यग्दर्शन के चोर, चार कषाय अर्थात् अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ इनका त्याग करने से सम्यग्दर्शन होता है।
दूसरे शब्दों में यहाँ यह बताया गया है कि इन चौदह प्रकार के अन्तरंग परिग्रहों का त्याग किस रीति से किया जाए। प्रथम ही यह जीव जब सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है, तब मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चौकड़ी का नाश करता है। अनादि मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा तो पाँच का नाश होता है और सादि मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा सात का नाश होता है। ये दो भेद अन्तरंग परिग्रह के हुए । तात्पर्य यह कि पहले यह जीव मिथ्यात्व नामक परिग्रह का त्याग करता है। तत्त्वार्थ का श्रद्धान न होना ही मिथ्यात्व है। पश्चात् अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ को भी उसी तत्त्वार्थ के श्रद्धान के साथ विदा कर देता है, क्योंकि यह चारों ही सम्यक्त्व के चोर हैं, इनकी उपस्थिति में सम्यग्दर्शन नहीं रह सकता। इसीलिए अनन्त संसार का कारण जानकर इनका नाम अनन्तानुबंधी रखा है, इनकी वासना भी अनन्तकाल तक रहती है।
आगे आचार्य कहते हैं
-
321