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________________ कार्य करती हैं। आपका सलोना रूप, आपकी समस्त सुघड़ सुन्दरता, आपका यह मनोरम श्रृंगार, आपको वहाँ पर कभी भी ले जाने में समर्थ नहीं होगा, जहाँ पर अनन्त सौन्दर्य की सरिता प्रवाहित होती रहती है। अतः जिसने सत्पुरुषों के समागम द्वारा विष समान विषयों से विरक्त होकर अपने अतीन्द्रिय आत्मसुख का पान किया है, जो सर्व से उदासीन होकर आत्मचर्या में प्रगट हुआ है वास्तव में वही सच्चा ब्रह्मचारी है। कहा गया है मिट जाये सब मन के विकार, प्रगटे निज में समयसार । आतम हो जाये निर्विकार, यह है ब्रह्मचर्य वैभव अपार || अपरिग्रह व्रत आज विश्व भौतिक दृष्टि से उन्नति के पथ पर प्रगति करते हुए भी अवनति की ओर जा रहा है। चारों ओर त्राहि-त्राहि मची है, नित्य बढ़ती हुई आवश्यकताओं की पूर्ति के योग्य पर्याप्त सामग्री के अभाव में असन्तोष बढ़ रहा है। आज मनुष्य एक-दूसरे की ओर संशय और भय की दृष्टि से देख रहा है। एक व्यक्ति दूसरे की सम्पत्ति को हड़पने के लिए अवसर की तलाश में है । जीवन व मृत्यु के झूले में झूल रहा है और निराश होकर अपने दिन गिन रहा है। आज जीवन भार बन चुका है। ऐसी दयनीय अवस्था आज विश्व में व्याप्त है। ऐसी अवस्था से छुटकारा पाने का उपाय केवल अपरिग्रह है। अपनी तृष्णाओं और आकांक्षाओं पर नियन्त्रण है। अपरिग्रह का प्रतिपक्षी परिग्रह है। यह परिग्रह अर्थात् संचय ही आज विश्व की मुख्य समस्या का कारण है। आवश्यकता से अधिक जोड़ना दूसरे के लिए अभाव उत्पन्न करना है। यह धर्म की दृष्टि से बहुत बड़ा पाप है, जिससे अधिकांश मानव आज अनभिज्ञ हैं। अपरिग्रह का शाब्दिक अर्थ - अपरिग्रह तीन शब्दों से मिलकर बना है। अ-रहित; परि= चारों ओर से; और ग्रह-संग्रह करना । अर्थात् चारों ओर से संग्रह करना ही परिग्रह है और इस संग्रह से रहित होना, अपरिग्रह है। जो पुण्यात्मा इसको अपने आचरण में लाता है, इसे उत्साह से पालता है, वही अपरिग्रही होते हैं। अपरिग्रह का विलोम परिग्रह है। यह पाप ही है। जैसे क्षमा का विरोधी क्रोध, मार्दव का विरोधी मान; उसी प्रकार आकिंचन्य का विरोधी परिग्रह है, अर्थात् आकिंचन्य के अभाव को परिग्रह अथवा परिग्रह के अभाव को आकिंचन्य कहा जाता है। इस प्रकार आकिंचन्य का दूसरा नाम अपरिग्रह भी है। परिग्रह के त्याग से आकिंचन्य धर्म प्रकट होता है, इसलिए पहले परिग्रह को समझना होगा। परिग्रह पाप का स्वरूप- आचार्य उमास्वामी कहते हैं कि 314
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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