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1. परविवाहकरण-दूसरों के पुत्र-पुत्रियों का विवाह कराना। 2. इत्वरिकापरिगहीतागमन-पति सहित व्यभिचारिणी स्त्री के घर आना-जाना. लेन-देन
रखना, राग-द्वेषपूर्वक वार्तालाप करना। 3. इत्वरिका-अपरिग्रहीतागमन-पति रहित वेश्या व्यभिचारिणी स्त्रियों के पास आना-जाना,
लेन-देन रखना। 4. अनंगक्रीड़ा-काम के अंग योनि और लिंग हैं, इनके सिवा अन्य अंगों से कामसेवन
करना। 5. कामतीव्राभिनिवेश-काम सेवन की तीव्र अभिलाषा रखना, इसके सिवा अन्य कार्यों
का नहीं रुचना कामतीव्राभिनिवेश है। इस प्रकार उपर्युक्त पाँच अतिचारों (दोषों) रहित
ब्रह्मचर्य को अखण्ड रखना चाहिए। इस सम्पूर्ण विवेचन से स्पष्ट है कि ब्रह्मचर्य व्रत पाँचों ही व्रतों में प्रधान और श्रेष्ठ होता है। इसका पालन करना बहुत कठिन होता है। जो भव्य जीव इसका पालन करते हैं उनमें असीम शक्ति का प्रवाह होने लगता है वे कई ऋद्धियों के धारक भी हो जाते हैं। भोजन खान-पान, संगति आदि का ब्रह्मचर्य से गहरा सम्बन्ध है। यदि आपका भोजन मांसाहारी, गरिष्ठ है, या आप कुसंगति में रहते हैं, तब ब्रह्मचर्य का पालन करना असंभव है। दूसरी ओर शाकाहारी भोजन एवं सुशीलों की संगति ब्रह्मचर्य साधना में बहुत सहायक है। यह ब्रह्मचर्य जीवन में उन्नति करने का मूल मंत्र है। अतः इसको धारण किये बिना जीवन को सुन्दर नहीं बनाया जा सकता। स्वयं को संयत रखने की चेष्टा प्रत्येक विवेकशील प्राणी को करना चाहिए। हृदय को काम-वासनाओं का घर नहीं बनाना चाहिए अन्यथा सवृत्तियाँ छोड़कर चली जायेंगी। सदैव अपने ब्रह्म स्वभाव को स्मरण करना चाहिए, कभी भी कुचेष्टाओं में नहीं फंसना चाहिए। जब तक हम मन-वचन-काय की बाह्य चेष्टाओं को समेटकर स्वयं में सीमित नहीं करेंगे तब तक ब्रह्मचर्य की रक्षा नहीं हो सकती। अतः शील ही मानव का सच्चा आभूषण होता है, इसे सदैव धारण करना चाहिए। ____ ब्रह्मचर्य का अर्थ है अपनी परोन्मुखी उपयोग की धारा को स्व की ओर मोड़ना। वाह्य दृष्टि अन्तर्दृष्टि बन जाए, बाह्य पथ अतपथ बन जाये-वस्तुत: यही उद्देश्य है ब्रह्मचर्य के पालन का। अतः अपने क्षुद्र वासनाओं की परिपूर्ति के लिए अपने अमूल्य, जीवन को कहीं खो मत देना। वासनाएँ तो क्षणिक प्रभावी होती हैं। वे अग्नि के समान हैं, मात्र जलाकर भस्म करने का ही
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