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ब्रह्मचर्य व्रत-जो विवाहित नवबाड़ सहित सदाकाल ब्रह्मचर्य व्रत को पालता है, वह ब्रह्मचर्य नामक सातवीं प्रतिमा का धारी होता है। वह अष्टमी, चतुर्दशी, अष्टाह्निका, दस लक्षण आदि दिनों में उपवास आदि रखता है। जिस प्रकार कोई किसान अपने धान्य आदि को सुरक्षित करने के लिए खेत को चारों ओर से बाड़ से बाँध कर पूर्ण सुरक्षा प्रदान करता है, उसी प्रकार इस ब्रह्मचर्य व्रत का पालक अपने ब्रह्मचर्य को 9 प्रकार बाड़ से बाँधकर अपने को सुरक्षित रखता है। नवबाढ़ को स्पष्ट करते हुए पं. बनारसीदास जी कहते हैं कि
तियथल वास प्रेम रुचि निरखन, दे परीछ भाखै मधु वैन। पूरव भोग केलि इस चिंतन, गुरु आहार लेत चित चैन। करि सुचि तन सिंगार बनावत, तिय पर जक मध्य सुख सैन।
मनमथ-कथा उदर भरि भोजन, ये नौवाड़ि कहै जिन बैन।। अखंड ब्रह्मचर्य-जो स्त्री या पुरुष विवाह ही नहीं करते, अखंड ब्रह्मचर्य का नवबाड़ सहित पालन करते हैं वे बाल ब्रह्मचारी कहलाते हैं।
ब्रह्मचर्य की महिमाआचार्य शिवकोटि कहते हैं -
तेल्लोक्काविडहणो कामग्गी विसयरुक्खपन्जीलओ। जोव्वणतणिल्लचारी ज ण डहइ सो हवइ धण्णो॥
- भगवती आराधना, 1115 कामाग्नि विषयरूपी वृक्षों का आश्रय लेकर प्रज्वलित महाग्नि, त्रैलोक्यरूपी वन को यह जलाने को उद्यत है। परन्तु तारूण्य रूपी तृण पर संचार करने वाले जिन महात्माओं को वह जलाने में असमर्थ है, वे महात्मा धन्य हैं। पं. आशाधर जी ने अनगार धर्मामृत के चौथे अध्याय 99वें श्लोक में कहा है कि-यौवनरूपी दुर्गम वन में विहार करते हुए जो युवावस्था में संयम ध रण करके लोगों को सत् शिक्षा देता है वह वृद्धावस्था के बिना भी वृद्ध है।
ब्रह्मचर्य में अपार शक्ति होती है, अखंड ब्रह्मचर्य को पालने वाले को कई तप ऋद्धियाँ प्राप्त हो जाया करती हैं, किन्तु ब्रह्मचर्य का अन्तिम फल मोक्ष सुख ही है।
आचार्य उमास्वामी कहते हैं कि ब्रह्मचर्य को निम्न पाँच दोषों अर्थात् अतिचारों रहित पालना चाहिए परविवाहकरणेत्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमनानंगक्रीड़ाकामतीव्राभिनिवेशाः॥
- तत्त्वार्थ सूत्र, अ. 7/28
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