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मूर्छा परिग्रहः॥
-तत्वार्थसूत्र. 7.17 अर्थात् जो 'मूर्छा' है वही परिग्रह है।
मूर्छा किसे कहते हैं? परद्रव्य में ममत्व बुद्धि का नाम मूर्छा है जो जीव वाह्य-संयोग विद्यमान न होने पर भी ऐसा संकल्प करता है कि 'यह मेरा है' वह परिग्रह सहित है, वाह्य द्रव्य तो निमित्त मात्र हैं। इसी बात को आचार्य अमृतचन्द्र इस प्रकार कहते हैं -
या मूर्छा नामेयं विज्ञातव्यः परिग्रहो ह्येषः। मोहोदयादुदीर्णो मूर्छा तु ममत्वपरिणामः।।
-पुरुषार्थसिध्युपाय, 111 यह जो मूर्छा है इसे ही निश्चय से परिग्रह जानना चाहिए मोह के उदय से उत्पन्न हुआ ममत्वस्वरूप परिणाम ही मूर्छा है।
परिग्रह जीव को व्याकुल करता है, अशान्त करता है। परिग्रह के कारण ही आज समाज में असमानता है, अशान्ति है, सब झगड़े हैं। कहा है -
परिग्रह मन व्याकुल करे, व्याकुलता दुःख छोर।
जो परिग्रह से सुख लहै, ते मूरख सिरमोर॥ जो मनुष्य परिग्रह में सुख समझते हैं वे मूों में शिरोमणी हैं। अधिक सम्पत्ति सदाचार की शिक्षिका नहीं अपितु दुराचार की देन है। संसार में पाप का मूल परिग्रह ही है। इसका जिसने सम्बन्ध किया, उसी का संसार में पतन हुआ। आज यदि मनुष्य इस परिग्रह में आसक्त न होते, तब यह समाजवाद या कम्युनिस्ट क्यों होते; आज क्या कहें-परिग्रह की मान्यता समाज में अतिव्याप्त है। आज बड़ा वह कहलाता है, जिसके पास भौतिक सामग्री का विशाल भण्डार है जिसे संसार के विषय-भोगों और इन्द्रियों की आकांक्षा पूर्ति के लिए सभी साधन सुलभ हों। आज बड़ा वह कहलाता है जिसके पास विलासिता के सभी साधन उपलब्ध हों और दूसरों को दण्ड देने के अधिकार हों। जिसके पास मकान, नौकर-चाकर, कारखाने हों वही व्यक्ति समाज की दृष्टि में, सरकार की दृष्टि में बड़ा है। किन्तु आध्यात्म क्षेत्र में, मोक्षमार्ग में आचार्य उसको बड़ा मानते हैं जिसकी आत्मा भौतिक सामग्री और आकांक्षा के भार से हलकी है। जो व्यक्ति सांसारिक वासनाओं के भार से दबे पड़े हैं, वे बड़े कैसे हो सकते हैं? उनकी आत्मा बोझ को ढोते-ढोते छोटी हो गयी है, वे सब तो करुणा के पात्र हैं। वे तो पशु के समान हैं। जो बोझ से दबा जा रहा है, भार में जो वस्तु है उसका कोई रस नहीं आ रहा है। आश्चर्य की बात तो यह है कि दूसरे उसे बड़ा माने तो माने, किन्तु वह व्यक्ति स्वयं बोझ का अहंकार करता है, अपने
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