SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 331
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सात्विक आहार और सत्संगति ब्रह्मचारी के लिए अनिवार्य है। सात्विक आहार में पूर्ण हरी सब्जियाँ, दूध, चपाती, आदि खाद्य पदार्थ आते हैं। चटपटे मसाले, युक्त गरिष्ठ भोजन ब्रह्मचारी के लिए वर्जित हैं। चाहे शरीर को पौष्टिक भोजन मिले या न मिले, किन्तु उसे गरिष्ठ भोजन नहीं करना चाहिए। ब्रह्मचर्य और उन्नति-ब्रह्मचर्य सबसे बड़ा तप है। यह उन्नति का मूल मंत्र है। दुर्भाग्यवश ब्रह्मचर्य का महत्त्व आज गिरता जा रहा है। भारतीय नवयुवक युवतियों को चाहिए कि वे अपने देश के कल्याण के लिए अपने इस प्राचीन व्रत को अपनाएँ। ब्रह्मचर्य द्वारा शक्ति प्राप्त कर अपना व्यक्तित्व उच्च बनाएँ और देश तथा समाज का उद्धार करें। ब्रह्मचर्य व्रत ही सब व्रतों में उत्तम है। इसके समान कोई दूसरा व्रत नहीं है। जिसने इस व्रत को साध लिया उसके अन्य सब व्रत अनायास ही सध जाते हैं, पर इस व्रत का पालन करना कोई सामान्य बात नहीं है। स्त्री विषयक राग को जीतना बहुत कठिन है। इसको निम्न दृष्टान्त द्वारा समझा जा सकता है। तीव्र काम का परिणाम दृष्टान्त-कोई पारसी एक थिएटर चलाता था। उसकी पत्नी बड़ी सुन्दर थी। वे दोनों रंग मंच पर अभिनय-प्रदर्शन करते थे। एक दिन वह स्त्री के साथ रंगमंच पर अभिनय कर रहा था। एक मनुष्य तीव्र रागवश कुछ उलटा-सीधा कागज पर लिखकर स्टेज पर फेंकता है। वह स्त्री उस कागज को दिया सिलाई से जलाकर पैरों से कुचल देती है। इधर स्त्री ने उस जले कागज को पैरों से कुचला, उधर उस मनुष्य ने अपना गला कटार से काट डाला। राग बड़ा दुःखदायी होता है। इसलिए कहा जाता है, कामवासना सदैव आत्मघात का ही कारण बनती है और बनाती है। ___ ब्रह्मचर्य व्रत को दृढ़ करने के लिए आचार्य उमास्वामी कहते हैं कि-ब्रह्मचारी को निम्न पाँच भावनाएँ भाना चाहिए। स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहरांगनिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टरसस्वशरीरसंस्कारत्यागाः पंच॥ - तत्त्वार्थसूत्र. अ. 7/7 1. स्त्रीरागकथाश्रवणत्याग-स्त्रियों में राग बढ़ाने वाली कथा सुनने का त्याग; 2. तन्मनोहरांगनिरीक्षणत्याग-स्त्रियों के मनोहर अंगों को निरखकर देखने का त्याग; 3. पूर्वरतानुस्मरणत्याग-अव्रत अवस्था में भोगे हुए विषयों के स्मरण का त्याग; - 308
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy