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अभक्ष्य एवं गरिष्ठ भोजन का त्याग आदि बातें पंचेन्द्रियों के विषय के त्याग की ओर ही तो संकेत करती हैं।
कुशील अब्रह्म का स्वरूप- आचार्य अमृतचन्द जी कहते हैं किद्वेदरागयोगान्मैथुनमभिधीयते
तदब्रह्म ।
अवतरति तत्र हिंसा वधस्य सर्वत्र सद्भावात् ॥
- पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 107 जो वेद के रागरूप योग से स्त्री-पुरुषों का सहवास कहा जाता है, वह अब्रह्म है और उस सहवास में प्राणिवध का सर्व स्थान में सद्भाव होने से हिंसा होती है।
विशेष - स्त्री की योनि, नाभि, कुच अर्थात् स्तन का अग्रभाग और कांख (बगल) में मनुष्याकार संमूर्च्छन पंचेन्द्रिय जीव उत्पन्न होते रहते हैं। इसलिए स्त्री के साथ सहवास करने में द्रव्यहिंसा होती है तथा स्त्री और पुरुष दोनों के कामरूप परिणाम होते हैं, जिससे भावहिंसा होती है।
सहवास करना प्रकट रूप से हिंसा है- आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं किहिंस्यन्ते तिलनाल्यां तप्तायसि विनिहिते तिला यद्वत् । बहवो जीवा योनौ हिंस्यन्ते मैथुने
तद्वत् ॥
- पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 108
तो
जिस प्रकार तिलों से भरी हुई बाँस की नली में गर्म की हुई लोहे की शलाका डाली जाय, तुरन्त सब तिल भस्म हो जाते हैं, उसी प्रकार स्त्री के अंग में पुरुष के अंग से मैथुन करने पर योनि में जितने भी जीव होते हैं वे तुरन्त ही मरण को प्राप्त हो जाते हैं। यही प्रकट द्रव्यहिंसा है।
विशेष- केवली भगवान ने मैथुन के सेवन में नौ लाख जीवों का घात बताया है, इसमें सदा विश्वास करना चाहिए।
वीर्य शरीर का सार - व्यवहार ब्रह्मचर्य का अर्थ शरीर की रक्षा करना भी है। भोजन शरीर में जाकर रस बनाता है, रस से रक्त, रक्त से माँस, माँस से मेद, मेद से मज्जा, मज्जा से वीर्य बनता है। इसलिए वीर्य शरीर की प्रधान शक्ति है। वीर्य के एक बिन्दु का पतन भी शरीर में बहुत शक्ति कम कर देता है। जो हम खाना खाते हैं, उसमें से व्यर्थ हानिकारक पदार्थ मल-मूत्र, पसीना, आँख-कान-नाक का मल, नाखून, केश आदि के रूप में बाहर निकल जाता है। जो वास्तविक शक्ति है, उसका वीर्य बन जाता है। फिर वह ओजस् रूप में सम्पूर्ण शरीर में चमकता रहता है। स्त्री के सप्त शुद्ध विशुद्ध सार पदार्थ को रज कहते हैं। स्त्री-पुरुष दोनों के सार पदार्थ
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