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रोगों से निवृत्त होना, उपयोग की धारा को सीमित कर अनन्त से हटाकर स्व आत्मा में केन्द्रित कर देना ही निश्चय ब्रह्मचर्य है। आज तक इस भवसागर में जितनी भी आत्माएँ पतित स्थिति से परम पावन स्थिति को प्राप्त हुईं हैं, उन सभी ने ब्रह्मचर्य की उपासना की। अपनी अनन्त आत्मा में सर्वथा के लिए स्थान दिया है। आध्यात्म क्षेत्र में साधना का आरम्भ ब्रह्मचर्य से ही होता है।
व्यवहार ब्रह्मचर्य - जो पुण्यात्मा स्त्रियों के ( या पुरुषों के) सुन्दर अंगों- उपांगों को देखकर उनमें राग रूप बुरे परिणाम करना छोड़ देता है, वही कठिन ब्रह्मचर्य को धारण करता है। यह व्यवहार ब्रह्मचर्य कहलाता है। इसी बात को और स्पष्ट करते हुए आचार्य पद्मनन्दि कहते हैं। कि जो अपने शरीर से निर्ममत्व हो चुका है, वह इन्द्रिय विजयी होकर स्त्रियों को क्रम से माता बहन और पुत्री के समान समझता है, वही जीव ब्रह्मचारी होता है। कुल मिलाकर ब्रह्मचर्य का व्यावहारिक रूप स्त्री वैराग्य ( या पुरुष वैराग्य) होता है। स्त्री से यहाँ मानुषी, तिर्यंचिनी, देवी, और उसकी प्रतिमा रूप सभी लिए गये हैं। वैराग्य से अर्थ है कि स्त्री से रमण करने की इच्छा का निग्रह। जब तक यह नहीं होता, तब तक ब्रह्मचर्य का पालन सम्भव नहीं है। इसलिए ब्रह्मचर्य को सब व्रतों का स्वामी कहा है। इससे कठिन दूसरा व्रत नहीं है और इसके बिना समस्त त्याग, यम, नियम व्यवहार आदि सभी व्यर्थ हैं। काम केवल काम वासना नहीं अपितु समस्त इन्द्रियाँ हैं। शरीर को हाथ से छूना ही छू लेना नहीं। शरीर को आँखों से भी छुआ जा सकता है। आँखें भी नित सुन्दर शरीर को छुआ करती हैं। किसी भी मधुर आवाज पर कान उसे छू लेते हैं - उस दिशा में खिंचे चले जाते हैं। जब समीप से कोई स्त्री मधुर - भीनी-भीनी अच्छी गंध लगाकर गुजरती है, तो हमारी घ्राणेन्द्रियाँ उस ओर आकर्षित हो जाती हैं। अर्थात् हाथों का स्पर्श यह अत्यन्त स्थूल स्वरूप का स्पर्श है, अन्य इन्द्रियाँ सूक्ष्म रूप से स्पर्श करती हैं।
इसी बात को आचार्य जयसेन इस प्रकार कहते हैं कि कामभोग में पाँचों इन्द्रियाँ सम्मिलित हैं। स्पर्शन और रसना इन्द्रियों के विषय तो काम हैं; और घ्राण, चक्षु, कर्ण इन्द्रियों के विषय भोग हैं। इसप्रकार काम भोग का त्याग ही वास्तव में व्यवहार ब्रह्मचर्य है । समयसार की चौथी 'गाथा की टीका करते हुए उन्होंने कामभोग में पाँचों इन्द्रियों के विषय को ले लिया। पर हम आचार्य जयसेन की इस व्याख्या को कहाँ मानते हैं। हम तो काम और भोग को एकार्थक मानने लगे हैं और उसका भी अर्थ एक क्रियाविशेष (मैथुन) से कर दिया है। मात्र एक क्रियाविशेष को छोड़कर पाँचों इन्द्रियों के विषयों को भरपूर भोगते हुए भी अपने को ब्रह्मचारी मान बैठे हैं। जब आचरण ने काम और भोग के विरुद्ध संकल्प किया तो उसका आशय पाँचों इन्द्रियों के विषयों के त्याग में अन्तनिर्हित, न कि मात्र मैथुनक्रिया के त्याग से। आज भी जब किसी को ब्रह्मचर्यव्रत दिया जाता है तो साथ में पाँचों पापों से निवृत्ति कराई जाती है; सादा खान-पान, सादा रहन-सहन रखने की प्रेरणा दी जाती है। सर्व प्रकार के श्रृंगारों का त्याग कराया जाता है।
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