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भी मालूम नहीं है। पुराना चोर घोड़े वाले के समीप आकर कहता है कि भाई घोड़ा चाल में कैसा है? घोड़े वाला कहता है कि सवारी करके देख लो स्वयं पता चल जायेगा ।
पुराने चोर के हाथ में हुक्का बनाने के लिए एक आने में खरीदा हुआ नारियल था। वह उसे घोड़े वाले को पकड़ा देता है और कहता है कि भाई तुम मेरा जरा यह सामान सँभालो, मैं घोड़े की चाल देखता हूँ। वह यह कहकर घोड़े पर चढ़ जाता हैं और घोड़े को भगा ले जाता है। वह जब नहीं लौटा तो उसके पास ठहरे मनुष्यों ने कहा कि तूने घोड़ा कितने में बेचा, तो चोर कहता है कि जितने में खरीदा था उतने में बेच दिया। फिर मनुष्य पूछते हैं, कि भाई लाभ कितना हुआ, तो चोर हाथ का नारियल दिखाते हुए कहता है कि यह तो चोरी का माल है, जैसे आता है, वैसे ही जाता है। इस प्रकार चोरी का माल किसी भी चोर के पास अधिक समय नहीं टिक पाता।
ब्रह्मचर्य व्रत
धन गया, तो कुछ नहीं गया; स्वास्थ्य गया, तो कुछ गया; चरित्र गया, तो सब कुछ गया ।
आध्यात्म मार्ग में ब्रह्मचर्य को सर्वप्रधान माना गया है। पाँच व्रतों में यह चौथा व्रत है। कामवासना एक रोग है और उसका प्रतिकार भोग नहीं है, भोग से तो यह रोग और भी अधि क बढ़ता है। चारित्र बल ही सबसे बड़ा बल है। विश्व पर विजय पाना इतना कठिन नहीं है, जितना इन्द्रियों को जीतना है। चारित्र बल से ही मानव महान् बनता है। इस चारित्र बल का मूल आधार ब्रह्मचर्य है। इसलिए भारत के महान् ऋषि सन्तों ने ब्रह्मचर्य को ही धर्म व जीवन का आधार बताया है। ब्रह्मचर्य दो प्रकार का है
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निश्चय ब्रह्मचर्य - ब्रह्मचर्य दो शब्दों से मिलकर बना है- ब्रह्म और चर्य। ब्रह्म का अर्थ आत्मा और चर्य का अर्थ आचरण अर्थात् स्व आत्मा में रमण करना ही निश्चय ब्रह्मचर्य है। आचार्य पद्मनन्दि स्वामी कहते हैं
आत्मा ब्रह्मविविक्तवोधनिलयो यत्तत्र चर्यं परः । स्वांगासंगविवर्तितै कमनसस्तद्ब्रह्मचर्यं मुनेः ॥
(पद्ममनन्वि, पंचविंशतिका - अ. 12.0 )
ब्रह्म शब्द का अर्थ निर्मल ज्ञान स्वरूप आत्मा है, उस आत्मा में लीन होने का नाम ब्रह्मचर्य है। जिस का मन अपने शरीर के भी सम्बन्ध में निर्ममत्व हो चुका है, वही सही अर्थों में ब्रह्मचर्य का पालन करता है। दूसरे शब्दों में, आत्मा में तल्लीन होना, चेतना में विहार कर भव के समस्त
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