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________________ - - है, जब हम अपने स्वभाव को छोड़कर पर द्रव्यों में जाते हैं अर्थात् विभाव परिणिति में, तब हम सभी चोर होते हैं। अपने स्वभाव में रहना निश्चय अचौर्य है, पूर्ण अचौर्यव्रत केवल अरहंतों के होता है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि एयत्ताणिच्छयगदो समओ सव्वत्थ सुन्दरो लोए। बंधकहा एयत्ते तेण विसंवादिणी होदि।।३ (समयसार) निश्चय से समस्त पदार्थ अपने-अपने स्वभाव में स्थित रहते हुए ही शोभा पाते हैं, किन्तु इस जीव नामक पदार्थ की अनादि काल से पुद्गल द्रव्य के साथ निमित्त रूप बंध अवस्था है, इस कारण इस जीव में विसंवाद है। अत: वह शोभा को प्राप्त नहीं है। यदि वास्तव में विचार किया जाये तो एकत्व ही सुन्दर है, इससे यह जीव शोभा को प्राप्त होता है। विशेष अर्थ-संसार में सामान्य रूप से ऐसा देखा जाता है कि जब यह मनुष्य छात्र जीवन में रहकर विद्यालय में विद्याध्ययन करता है, तब तक वह प्रायः सर्व आपत्तियों से विमुक्त रहता है अर्थात् ब्रह्मचारी हो सानन्द जीवन व्यतीत करता है। किन्तु अध्ययन के पश्चात् जब अपने घर प्रवेश करता है तथा माता-पिता की आज्ञा से विवाह बन्धन को स्वीकृत करता है तब वह द्विपद से चतुष्पद होता है। भाग्य से यदि शिशु जन्म ले लेता है, तब यह मनुष्य षट्पद हो भौरे के समान हो जाता है। जब अपने बालक का विवाह संस्कार करता है तब मानो अष्टपद हो मकड़ी हो जाता है। इस प्रकार वह अपने ही जाल में अपने आप ही मरण को प्राप्त हो जाता है। पर का सम्बन्ध ही इस संसार में आपत्तियों की जड़ है। इस प्रकार अनादि काल से जीव के साथ पुद्गल द्रव्यों के सम्बन्ध से यह बन्ध ही हो रहा है अतः यह विसंवादजनक है। इसलिए द्रव्यों से भिन्न और स्वकीय गुण पर्यायों से अभिन्न आत्मा का जो एकत्व है वही सुन्दर है। व्यवहार अचौर्य आचार्य उमास्वामी कहते हैं कि-अदत्तादानं स्तेयम्।। - तत्त्वार्थसूत्र. अ. 7, 15 प्रमाद के योग से बिना दी हुयी किसी भी वस्तु को ग्रहण करना स्तेय अर्थात् चोरी है। यहां प्रश्न उठता है कि कर्मवर्गणा और नोकर्मवर्गणाओं का ग्रहण, जो कि जीव को अनादिकाल से हो रहा है, क्या यह चोरी है? इस सन्दर्भ में आचार्य पूज्यपाद स्वामी सर्वार्थसिद्धि में कहते हैं कि-"नहीं वह चोरी नहीं कही जायेगी, क्योंकि जहाँ लेन-देन सम्भव हो वहाँ चोरी का व्यवहार होता है, इस कारण से 'अदत्त' शब्द दिया गया है।' फिर प्रश्न उठता है कि - 298
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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