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________________ ही नहीं है। आप मेरे घर से कैसे जा सकते हैं।' सत्य निरुत्तर हो जाता है। बाद में धर्म व लक्ष्मी । भी लौट आती हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि सत्य की सदा जीत होती है। अत: सत्य को कभी भी नहीं त्यागना चाहिए। अचौर्य व्रत अचौर्य का विलोम है चौर्य, अर्थात् चोरी करना। संसार में अनेक प्रकार की चोरियाँ होती हैं। जब जीव लोभ कषाय के वशीभूत होकर किसी दूसरे की वस्तु को बिना दिये ही ग्रहण करता है तब वह चोर कहलाता है। यह चोरी नरक आदि गति अपयश तथा निंदा का कारण बनती है। दूसरी ओर गम्भीरता गहराई से विचार किया जाये तो ज्ञात होता है कि जो स्वकर्म को स्व आत्मा को छोड़कर पर को अपनाता है, उसमें ममत्व बुद्धि रखता है, वही भी वास्तव में चोर होता है। पर वस्तु क्या है? अपनी स्वयं की आत्मा के अतिरिक्त सभी पर वस्तुएँ हैं यही निश्चय से चौर्य है। इसको जानकर, समझकर जो मानव इसका त्याग कर देता है वही अचौर्यव्रत का ध रक कहलाता है। आचार्य अमृतचन्द्र इस प्रकार बताते हैं अवितीर्णस्य ग्रहणं परिग्रहस्य प्रमत्तयोगाद्यत्। तत्प्रत्येयं स्तेयं सैव च हिंसा बंधस्य हेतुत्वात्।। - पुरुषार्थसिध्युपाय जो कोई प्रमाद-कषाय के योग से बिना दिये स्वर्ण, वस्त्रादि परिग्रह को ग्रहण करता है, उसे चोरी या चौर्य जानना चाहिए और वही बंध का कारण होने से हिंसा है। । दूसरे शब्दों में जब किसी को चोरी करने का भाव होता है वह उसकी भाव हिंसा है, और जब उसको कोई चोर जानकर उसके प्राणों का वियोग कर दे तो वही उसकी द्रव्यहिंसा कहलाती है। इसके साथ ही जिस जीव की वस्तु चोरी जाती है जिससे उसे अन्तरंग पीड़ा होती है उसकी वह भावहिंसा कहलाती है, तथा उस वस्तु के निमित्त उस जीव के जो द्रव्य प्राण विद्यमान उनका जब वियोग हो जाता है तब वही उसकी द्रव्यहिंसा कहलाती है। इस प्रकार चोरी करने से चोरी करने वाले की तथा जिनकी चोरी हुयी है, उसकी द्रव्य और भाव दोनों प्रकार की हिंसा होती हैं। ऐसा जानकर, समझकर जो जीव इसका सर्वथा त्याग करता है वही अचौर्य है और इसका पालन करने वाला अचौर्य व्रती कहलाता है। अचौर्य निम्न दो प्रकार का होता है1. निश्चय अचौर्य. जो वस्तु अपनी है, अर्थात् स्व-आत्मा, इससे अलग समस्त पर द्रव्यों को ग्रहण करना चोरी 297
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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