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________________ यदिदं प्रमादयोगादसदभिधानं विधीयते किमपि । तदनृतमपि विज्ञेयं तद्भेदाः सन्ति चत्वारः ॥ - पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, ११ जो कुछ भी प्रमाद, कषाय के योग से स्व-पर को हानिकारक या अन्यथा रूप वचन कहने में आता है, उसे निश्चय से असत्य जानना चाहिए। इस असत्य के चार भेद हैं। 1 प्रथम भेद जो वस्तु अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप से अस्तिरूप हो, उसे नास्तिरूप कहना। आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि स्वक्षेत्रकालभावैः सदपि यस्मिन्निषिध्यते वस्तु । तत्प्रथममसत्यं स्यान्नास्ति यथा देवदत्तो ऽत्र ॥ पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 92 जिस वचन में वस्तु का अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से विद्यमान होने पर भी निषेध किया गया हो तब उस वचन को असत्य वचन कहा जाता है। जैसे- किसी क्षेत्र में देवदत्त नाम का पुरुष बैठा था वहाँ किसी ने पूछा- यहाँ देवदत्त है क्या ? उत्तर मिला- यहाँ देवदत्त नहीं है। यह असत्य वचन का प्रथम भेद है क्योंकि जो कुछ भी पदार्थ है, उसे 'द्रव्य', जिस क्षेत्र में तिष्ठे उसे 'क्षेत्र'; जिस काल में जिस रीति से परिणत करे उसे 'काल' ; तथा उस पदार्थ का जैसा कुछ निजभाव है उसे 'भाव' कहते हैं। अपने इस चतुष्टय की अपेक्षा से सर्व पदार्थ अस्तिरूप हैं। यहाँ देवदत्त का निश्चय तो था ही, परन्तु नास्तिरूप जो कथन हुआ. वही असत्य वचन हुआ। 2. दूसरा भेद जो वस्तु अपने द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव रूप से नहीं है, वहाँ उसका सद्भाव स्थापित करना, यानि अविद्यमान वस्तु को विद्यमान कहा जाना । आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं असदपि हि वस्तुरूपं यत्र परक्षेत्रकालभावैस्तैः । उद्भाव्यते द्वितीयं तदनृतमस्मिन् यथास्ति घटः । पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 93 निश्चय से जिस वचन में परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से पदार्थ सत्तारूप नहीं हैं, तो भी 1 वहाँ उनको प्रकट करना, वह दूसरा असत्य है। जैसे- कहना कि यहाँ घड़ा है। दूसरे शब्दों में किसी क्षेत्र में घड़ा तो था नहीं, इसलिए उस समय उसका द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव भी 289
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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