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व्यवहार सत्यव्रत-प्रशस्त अर्थात् कल्याणकारी वाक्य कहना, प्रमाद के वशीभूत होकर कभी भी अप्रशस्त अर्थात अकल्याणकारी वाक्य न बोलना. सत्यव्रत है। सक्ष्म दृष्टि से विचारने पर जो वस्तु जिस देश में व जिस काल में जैसी देखी सुनी हो, उसको वैसी की वैसी ही कहना सत्य नहीं क्योंकि विद्यमान या यथार्थ अकल्याणकारी भी हो सकता है और अप्रशस्त वाक्य कभी भी सत्य नहीं हो सकता क्योंकि सत्य आदि व्रतों का आधार अहिंसा है, इसलिए जो वाक्य जीवों का हित करने वाला है, उन्हें प्राण संकट से बचाने वाला है, वह अविद्यमान या अयथार्थ हो तो भी अहिंसा धर्म का पोषक होने से सत्य रूप है। जो वचन पाप रूप हिंसा कार्य की पुष्टि करता है, वह कितना ही यथार्थ क्यों न हो, अहिंसा मार्ग से प्रतिकूल होने के कारण असत्य एवं ॥ निन्दनीय है। आचार्य वट्टकेर मूलाचार में लिखते हैं कि
रागादीहिं असच्चं चत्ता परतावसच्चवयणुत्तिं।
सुत्तत्थाणविकहणे अयधावयणुज्झणं सच्च॥१.६ राग-द्वेष, मोह, पैशुन्य (चुगलखोरी) ईर्ष्या आदि के वश होकर असत्य नहीं बोलना, जिससे दूसरे को सन्ताप हो, ऐसे सत्य वचन भी नहीं बोलना, सर्वथा अस्ति या नास्ति रूप एकान्त वाक्य का त्याग करना, सूत्रार्थ अर्थात् द्वादशांग वाणी का अन्यथा प्रतिपादन नहीं करना सत्य महाव्रत है।
उपर्युक्त गाथा में छोड़ने योग्य अप्रशस्त क्या है, यह भली-भाँति समझा दिया गया है। राग-द्वेष भावों से बोलना ही अप्रशस्त है। अप्रशस्त वाक्य का त्याग करना ही सत्यव्रत है। कटु एवं कठोर वचन कभी नहीं बोलना चाहिए, क्योंकि इनके बोलने से स्व-पर को विशेष कष्ट होता है। सत्य रूप प्रिय वचन बोलने से किसी को भी कष्ट नहीं होता, बल्कि स्वयं की आत्मा में आह्लाद और दूसरों को परम संतोष होता है। इस प्रकार असत्य वचन से सदा बचना चाहिए। आचार्य उमास्वामी भी लिखते हैं किअसद भिधानमनृतम।।14।।
- तत्त्वार्थसूत्र, अ.7 प्रमाद के योग से जीवों को दु:खदायक वचन बोलना ही असत्य है। दूसरे शब्दों में प्रमाद के सम्बन्ध से झूठ बोलना, असत्य है। जो शब्द निकलता है वह तो पुद्गल द्रव्य की अवस्था है, उसे जीव नहीं परिणमाता, इसी से मात्र शब्दों के उच्चारण का पाप नहीं किन्तु जीव का असत्य बोलने का जो प्रमादभाव है वही पाप है।
असत्य के भेद आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि
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