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बनना, लीवर में खराबी, गठिया आदि। इस प्रकार शाकाहारी भोजन ही उत्तम है और शाकाहारी भोजन करना अहिंसक होने का प्रतीक है।
सत्य व्रत "सत्यव्रत क्या है?" जैसा हुआ हो वैसा का वैसा ही कहना, सत्य का सामान्य लक्षण है, किन्तु आध्यात्म मार्ग में 'स्व' व 'पर' अहिंसा की प्रधानता होने से हित-मित-प्रिय वचन को सत्य कहा जाता है। आचार्य अमृतचन्द्र समयसार की टीका आत्मख्याति के प्रारम्भ में ही लिखते हैं कि
नमः समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते।
चित्स्वभावाय भावाय सर्व भावांतरच्छिदे॥1॥ समयसार के प्रारम्भ में "नमः समयसाराय" कहकर आचार्य ने शुद्ध आत्मा का सम्मान कर उसे नमस्कार किया है। उसी का नाम निश्चय सत्य है। मोक्षार्थी को शद्ध आत्मा का सम्मान करना आना चाहिए।
यहाँ आचार्य यह समझाते हैं कि जिसे नमस्कार किया, जिसका आदर किया-वह शुद्ध आत्मा कैसी चित् स्वभावी वस्तु है। 'भाव' कहने से वह सत् वस्तु है, और चित् ‘स्वभाव' कहने से चैतन्य उसका लक्षण है तथा स्वयं को स्वयं की स्वानुभूति से ही प्रकाशित करता है, जानता है, अनुभव करता है, वह उसकी क्रिया (पर्याय) है। इस प्रकार शुद्ध आत्मा के द्रव्य, गुण और पर्याय-इन तीनों को पहचान कर उसे नमस्कार किया गया। देखो भाई! जीव ने अनन्त बार चारों गतियों में जन्म धारण किये हैं। उन गतियों में देव और नारकी, राजा और रंक, चींटी और हाथी अनन्त बार हुआ है, किन्तु शुद्ध आत्मा का भान कभी एक क्षण भी नहीं किया है। परमात्म स्वरूप सत्य की महिमा वर्णनातीत है इसकी महिमा को शब्दों में वर्णन करना मानव की क्षमता से परे है।
सत्य अत्यन्त महान् है, अत्यन्त विशाल है, अत्यन्त व्यापक है। जो व्यक्त किया जा सकता है, किया जाता है, वह पूर्ण सत्य कभी नहीं होता है, वह मात्र आँशिक सत्य ही होता है। वास्तव में 'सत्य' एक अत्यन्त सुन्दर सुखद अनुभूति है। यह एक आत्मगत वस्तु है। विषय कषायों के उपशम के उपरान्त ही, सत्य का आत्मा में उदय होता है। शान्ति के सद्भाव में ही इसका शुभ आगमन होता है। सत्य की एक बहुत छोटी किरण मानव के समस्त जीवन को रूपान्तरित कर डालती है। अज्ञानान्धकार कितना भी प्राचीन क्यों न हो, सत्य के प्रकाश की एक छोटी से छोटी किरण भी समस्त अंधकार को छिन्न-भिन्न करने में पूर्ण समर्थ होती है।
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