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और पानी तक पहुंचा देता
ले जाता है। कुआँ वीरान पड़ा हुआ था । वहाँ कोई लोटा, डोल, रस्सी आदि नहीं रखी थी। फकीर ने विचार किया कि अब क्या करें, थोड़ी देर मे ही निर्णय लेता है और तुरन्त एक बड़े से पत्ते का दौना बना लेता है। इस दौने पर अपने शरीर के कपड़े धोती- दुपट्टा हज को जाते हुए पहनते हैं तथा एक रूमाल भी अपने पास रखते हैं) बाँधता है है। पानी भरकर पुनः खींचता है और घायल कुत्ते को पिला देता है। कुत्ते को कुछ होश आता है तो फकीर उसे उठाकर पास की एक मस्जिद में ले जाता है और वहाँ के मुल्ला से कहता है कि- " आप मेरे इस कुत्ते की रक्षा करना। मैं काबा हज यात्रा को जा रहा हूँ, आकर ले लूँगा "। रात्रि में ही फकीर को आकाशवाणी होती है कि "तुम्हें काबा जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। तुमने मेरे बन्दे की रक्षा की है, तुम्हारी हज यहीं हो चुकी है। "
उपर्युक्त दृष्टान्त से यह बात सिद्ध हो जाती है कि मुस्लिम फकीरों में पर्याप्त अहिंसा, दया होती है।
शिकारी में दया जागी
मुहम्मद साहब वन से गुजर रहे थे, रास्ते में उनको एक शिकारी मिलता है। उसने एक हिरणी को पकड़ रखा था। मुहम्मद साहब उस शिकारी को देखकर कहते हैं कि, तुम इस हिरणी को छोड़ दो। इसके बच्चे भूख से तड़फ रहे होंगे। ये उन्हें दूध पिला आयेगी। शिकारी हिरणी को छोड़ने को तैयार नहीं होता है और कहता है कि-" ये मेरा आहार है, मैं इसे कैसे छोड़ दूँ? मुहम्मद साहब को हिरणी पर बहुत दया आती है, अतः वे पुनः कहते हैं कि - "तुम इसे मेरी जमानत पर छोड़ दो अर्थात् मैं इस हिरणी का साक्षी बनता हूँ। यदि यह न आई तो तुम मेरा शिकार कर लेना । " अब शिकारी इस शर्त पर हिरणी को छोड़ देता है । हिरणी बच्चों को दूध पिलाने जाती है। बच्चे भूख से मारे व्याकुल हो रहे थे। तब हिरणी कहती है- " बच्चों जल्दी करो- दूध जल्दी पीकर मुझे छुट्टी दे दो, मुझे जल्दी जाना है। नहीं तो जिसने मेरा साक्षी बनकर तुम्हें दूध पिलाने के लिए भेजा है, समय पर नहीं पहुंचने के कारण शिकारी उस व्यक्ति को मार डालेगा।" हिरणी के बच्चे दूध पीने से मना कर देते हैं। कहते हैं- "माँ! तुम्हारी तो जान जा रही है, और हम दूध पीयें, जाओ जल्दी करो, अपने वचन के अनुसार उस को छुड़ालो । हिरणी वचन के अनुसार तत्काल वहाँ पहुंच जाती है। शिकारी यह देखकर हैरान हो जाता है और सोचता है कि क्या पशु भी वचन के सच्चे होते हैं, मुहम्मद साहब शिकारी से कहते हैं कि- " लो तुम्हारी हिरणी वापस आ गयी, इसे सम्हालो।" यह सब दृश्य देखकर शिकारी कहता है कि- " जब पशु भी अपने वचन के इतने पक्के होते हैं तो मैं तो एक इन्सान हूँ, इसे मैं क्यों अपने पेट की कब्र बनाऊँ, बेरहम, बेवफा शिकारी के मन में अहिंसा जाग्रत हो जाती है और वह कहता है कि मैं आज से शिकार करने का और माँस खाने का त्याग करता हूँ। मैं इससे
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