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________________ वाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानि पञ्च॥ - तत्वार्थसूत्र-अ. 1/4 वचनगुप्ति (वचन का रोकना), मनगुप्ति (मन की प्रवृत्ति को रोकना) ईर्यासमिति (चार हाथ जमीन देखकर चलना), आदाननिक्षेपण समिति (जीव रहित भूमि देखकर सावधानी से किसी वस्तु को उठाना-धरना), और आलोकितपानभोजन (शोधकर-देखकर भोजन-पानी ग्रहण करना)-ये पाँच अहिंसा व्रत की भावनाएँ मानी गयी हैं। वास्तव में अहिंसा के केन्द्र बिन्दु पर करुणा और आनन्द ही उत्पन्न होता है। जितनी अहिंसा भीतर फलित होती है उतनी आनन्द की सुगंध चारों ओर फैलने लगती है और व्यक्ति आनन्द से भर जाता है। उसका सारा आचरण दयामय बन जाता है, अन्तस् में अहिंसा प्रकट हो तो आचरण में दया, करुणा प्रकट होने लगती है। अहिंसा का दीपक जलता है तो करुणा की किरणें सारे जगत् में फैलने लगती हैं, और जब भीतर हिंसा की घटा छाती है तो सारे संसार में अन्धकार फैलता है, घृणा और वैमनस्य फैलता है। जीवों को मारना ही नहीं, बल्कि उनको दुःख देना, कष्ट पहुँचाना भी हिंसा का एक प्रकार है। इसलिए आचार्य उमास्वामी कहते हैं किबन्धवधच्छेदातिभारारोपणान्नपाननिरोधाः॥ -तत्वार्थसूत्र-अ. 7/25 बन्ध-प्राणियों को इच्छित स्थान में जाने से रोकना; वध-प्राणियों को लकड़ी इत्यादि से मारना; छेद-प्राणियों के नाक-कान आदि अंग छेदना; अतिभारारोपण-प्राणी के उपर शक्ति से अधिक भार लादना; अन्नपाननिरोध-अपने आधीन प्राणियों को ठीक समय पर खाना-पीना न देना। ये अहिंसाणु व्रत के पाँच अतिचार हैं। इस प्रकार ये सब अहिंसा के दोष हैं। इनसे अहिंसा पालक को बचना चाहिए। ___ यदि कोई व्यक्ति दयाहीन है तो वह हिंसक से कम नहीं है। दया ही अहिंसा का मूल है अर्थात् जड़ है। दयाहीन पुरुष की क्या-क्या दुर्गति नहीं होती तथा वह क्या-क्या दु:ख नहीं भोगता, यह निम्न दृष्टान्त से स्पष्ट हो जाता है दयाहीन सेठ एक नगर में एक सेठ जी रहते थे। उनके पाँच वर्ष का एक लड़का था। सेठ जी व्यापार करने के लिए बाहर चले जाते हैं और बारह वर्षों तक घर नहीं आते। इतने लम्बे अन्तराल के
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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