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चीरा - फाड़ी भी अहिंसा के लिए है, सब बचाने के लिए हैं, रक्षा करने के लिए हैं। कोई भी कार्य हिंसा के लिऐ नहीं है। अहिंसा के बल पर ही दुनिया बची हुयी है। "
अहिंसा में बहुत बल होता है, यह बात सरलता से समझ में नहीं आती, किन्तु जो अहिंसा को अपने जीवन में प्रयोग करते हैं। जो कार्य पूरे देश में नागरिक मिलकर सैंकड़ों वर्षों में नहीं कर सकते वह कार्य केवल एक व्यक्ति कुछ वर्षों में कर सकता है। इसका जीता-जागता उदाहरण महात्मा गाँधी हैं। सम्पूर्ण विश्व जानता है कि गाँधी जी की शक्ति का आधार अहिंसा ही था जिसके बल पर भारत स्वन्तत्र हुआ था। शक्ति हिंसा में नहीं है अहिंसा में है। यह निम्न दृष्टान्त से भी स्पष्ट हो जाता है।
ससम्मान बरी
किसी जैन भाई को झूठे हत्या के आरोप में फाँसी लगने का दिन आया तो उससे पूछा जाता है कि भाई तुम्हें कुछ चाहिए तो हमें बता दो, अर्थात् तुम्हारी अन्तिम इच्छा क्या है? वह कैदी कहता है - "मुझे एक गिलास पानी पीने को चाहिए और वह भी छना हुआ "। यह बात जज को पता लगती है, तो जज साहब पूछते हैं कि छना हुआ जल क्यों माँगता है? तब वह कैदी कहता है कि पानी में बहुत छोटे-छोटे जीव होते हैं। उनकी रक्षा हेतु मैं जल छानकर पीता हूँ। जज साहब विचार करने लगे कि जब यह छोटे-छोटे प्राणी की रक्षा करता है तो इसने मनुष्य की हत्या नहीं की होगी। जज यह निर्णय करते हुए जैन भाई को ससम्मान बरी कर देते हैं। इस प्रकार वह छना हुआ पानी माँगने से बरी हो जाता है। इसने अपने जीवन में अहिंसा को स्थान दिया। वह बच जाता है। एक दिन महात्मा गाँधी जी ने कहा था- "मैं जैनकुल में जन्म लेने वाले को ही जैनी नहीं मानता अपितु मेरी दृष्टि में अहिंसा का पालन करने वाला प्रत्येक व्यक्ति जैन है। धर्म-जाति व प्रान्त में जन्म लेने मात्र से जैन नहीं वरन् जो अहिंसा को जीवन में उतार लेता है वही जैन कहलाता है।
अहिंसा विशाल है, समस्त कार्य अहिंसा के लिए है, सीमा पर सेना खड़ी है वह भी हिंसा के लिए नहीं अपितु हमारी रक्षा के लिए खड़ी है, शरीर पर त्वचा इसलिए है कि मक्खी-मच्छर से भीतर बहने वाले रक्त की सुरक्षा हो सके, आँखों को धूलिकण से बचाने के लिए पलकों पर छोटे-छोटे बाल लगे हैं, वह भी हमारी रक्षा के लिए ही लगे हैं। इस प्रकार संसार की प्रत्येक वस्तु हमारी रक्षा के लिए ही है, इस बात को गंभीरता से सोचना होगा।
अहिंसा समस्त व्रतों की मूल है-अहिंसा समस्त अणुव्रतों व महाव्रतों की मूल है। सभी व्रतों में अहिंसा ही प्रधान है। इसलिए अहिंसा की स्थिरता के लिए आचार्य उमास्वामी जी कहते हैं
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