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प्रथम अध्याय : वक्ता एवं श्रोता
वक्ता एवं श्रोता विभिन्न दृष्टियों से विभिन्न प्रकार के होते हैं। सभी में कतिपय सामान्य विशिष्टताएँ होने पर भी आध्यात्मिक, धार्मिक और दार्शनिक वक्ता और श्रोता के स्वरूप का स्वतंत्र ही वैशिष्ट्य होता है। अल्पज्ञ भी स्वयं को योग्य वक्ता समझकर समाज में घोर छलावा करते हैं। अयोग्य श्रोता भी अल्पज्ञ वक्ता को अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए उपयोगी जानकर उसका बहुसम्मान करते हैं। वस्तुतः स्वकल्याण को अन्तर्निहित किए हुए अपने वक्तृत्व से परे सब के कल्याण के इच्छुक वक्ता का क्या स्वरूप और योग्यताएँ होना चाहिए, श्रोता कैसा होना चाहिए एवं उसके क्या प्रकार हैं इत्यादि समस्त विषयों पर यहाँ प्रकाश डाला गया है।
वक्ता का स्वरूप
तज्जयति परं ज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायैः । दर्पणल इव सकला प्रतिफलति पदार्थ मालिका यत्र ॥1॥
(पुरुषार्थसिद्ध्युपाय)
जिसमें दर्पण के तल की तरह समस्त पदार्थों का समूह अतीत, अनागत और वर्तमान काल की समस्त अनन्त पर्यायों सहित प्रतिबिम्बित होता है, वह सर्वोत्कृष्ट शुद्ध चेतनारूप प्रकाश जयवन्त हो ।
वक्ताओं के तीन प्रकार वीतराग भगवान ही सच्चे वक्ता हैं, वे कैसे वक्ता हैं रत्नकरण्ड श्रावकाचार में अचार्य समन्तभद्र कहते हैं
अनात्मार्थं विना रागैः शास्ता शास्ति सतो हितम् । ध्वनन् शिल्पिकरस्पर्शान् मुरजः किमपेक्षते ॥8॥
शिल्पी के हाथ के स्पर्श से जैसे मृदंग अपनी इच्छा के बिना बजकर अपने आप सुन्दर आवाज से श्रोताओं के मन को प्रसन्न करता है किन्तु उसके बदले में श्रोताओं से कीर्ति पूजा आदि की कुछ भी चाह और राग नहीं करता, उसी प्रकार हितोपदेशी, वीतरागी देव भी भव्य जीवों के पुण्य के निमित्त से बिना इच्छा स्वयमेव हित का उपदेश देते हैं, फिर भी उनके लाभादिक की इच्छा और श्रोताओं पर राग नहीं रहता।
आप्तो पज्ञमनुल्लङ्घ्यमदृ ष्टे ष्टविरो धकम् । तत्त्वोपदेशकृत्सार्व, शास्त्रं कापथघट्टनम् ॥9॥
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