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भगवान महावीर के तीन सिद्धान्त हम स्याद्वाद का डंका फिर, दुनिया में आज बजायेगें। प्रभु वीर जिनेश्वर के गुण गा, जग से मिथ्यात्व हटायेगें। हठ का हम भूत भगायेंगे, अपेक्षा से समझायेगें। अनेक गुण हैं वस्तु में, स्याद्वाद से बतलायेगें। है एक उमंग भरी दिल में, लहराये अहिंसा का झण्डा। हो भव्य जीवों से भरी हुई, पृथ्वी को कर दिखलायेगें। परिग्रह वृत्ति को दूर भगा, आकिंचन धर्म अपनायेगें। सिद्धान्त तीन महावीर के हैं, जन जन में हम पहुँचायेगें। समंतभद्र जैसा डंका, अकलंक बन आज बजायेगें। आचार्य कन्द-कन्द कह गये, अध्यात्म समन संजोयेगें। जिन धर्म का बिगुल बजायेंगे, हम दर हटा कायरता को। सब छोड़ वृथा झगड़ों को हम, झण्डे की लाज बचायेगें।
गुरु भक्ति का भजन है परम-दिगम्बर मुद्रा जिनकी, वन-वन करे बसेरा। मैं उन चरणों का चेरा, हो वंदन उनको मेरा..........। शाश्वत सुखमय चैतन्य-सदन में, रहता जिनका डेरा। मैं उन.....। जहाँक्षमा मार्दव आर्जव सत् शुचिता की सौरभ महके। संयम तप त्याग आकिंचन स्वर परिणति में प्रतिपल चहके। है ब्रह्मचर्य की गरिमा से, आराध्य बने जो मेरा॥ मैं........। अन्तर-बाहर द्वादश तप से, जो कर्म-कालिमा दहते। उपसर्ग परिषह-कृत बाधा जो, साम्य-भाव से सहते। जो शद्ध-अतीन्द्रिय आनन्द रस का, लेते स्वाद घनेरा। मैं......... जो दर्शन जान चरित्र वीर्य तप. आचारों के धारी। जो मन-वच-तन का आलम्बन तज, निजचैतन्य विहारी। शाश्वत सुख दर्शक वचन-किरण से, करते सदा बसेरा॥ मैं....। नित समता स्तुति वंदन और, स्वाध्याय सदा जो करते। प्रतिक्रमण और प्रति-आख्यान कर, सब पापों को हरते॥ चैतन्यराज की अनुपम निधियाँ, जिनमें करें बसेरा। मैं....।