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पर-द्रव्य हिंसा का मूल कारण स्वभाव हिंसा ही है; अर्थात् अपने आत्मा से दुर्भाव पैदा हो जाने पर या असावधानी से जब दूसरों के भावप्राणों का या द्रव्यप्राणों का नाश किया जायेगा तब ही ये कार्य हिंसा कहला सकते हैं। हमारे भाव राग-द्वेष, क्रोधादि विचारों से रहित हैं और हम दूसरों की रक्षा व हित का पूरा-पूरा ध्यान रखते हुए सावधानी से कार्य कर रहे हैं ऐसी स्थिति में हमारे द्वारा किसी के प्राणों के वियोग हो जाने पर भी या पीड़ित हो जाने पर भी हमें हिंसा का दोष नहीं लग सकता। एतदर्थ निम्न दृष्टान्त दृष्टव्य है
किसान और धीवर एक किसान खेत जोत रहा है और खेत जोतने से बहुत से जीवों का घात हो रहा है। किसान केवल अन्न पैदा करना चाहता है, उसकी दृष्टि अन्न पैदा करने पर है, जीवों को वह नहीं मारना चाहता। दूसरी ओर एक मछुआरा पानी में जाल डाले बैठा है। सुबह से शाम हो जाती है, कोई मछली जाल में नही फँसती है। किन्तु मछुआरे की दृष्टि हिंसा पर है। इस प्रकार दोनों के भावों में बहुत अन्तर है। किसान के भाव हिंसा के नहीं है वह यदि सावधानी से खेत जोत रहा है तो जीवों के द्रव्यप्राणों का वियोग हो जाने पर भी उसे हिंसा का दोष नहीं लगता। दूसरी
और मछुआरे के भाव हिंसामय है। मछली के जाल में न आने पर भी मछुआरा निरन्तर भाव हिंसा कर रहा है पापबन्ध कर रहा है। इस प्रकार हिंसा में भावों की प्रधानता है, न की वाह्य दृष्टिगोचर क्रिया की।
श्रावक की अपेक्षा हिंसा के भेद
मुनिराज उपर्युक्त सब प्रकार की हिंसा के त्यागी होते हैं। परन्तु श्रावक सब प्रकार की हिंसा के त्यागी नहीं हो सकते हैं। हिंसा निम्न चार प्रकार की होती है1. आरंभी हिंसा-गृहस्थों को अपना गृहस्थ धर्म चलाने के लिए आरम्भ में जो हिंसा होती
है, उसे आरम्भिक हिंसा कहते हैं। इस हिंसा से गृहस्थ बच नहीं सकता। किन्तु आरम्भ करते समय बहुत विवेकपूर्ण कार्य करना चाहिए, असावधानीवश कार्य नहीं करना चाहिए। उद्योगी हिंसा-गृहस्थ के आजीविका उपार्जन करते समय जो हिंसा हो जाती है, उसे उद्योगी हिंसा कहते हैं। जिसमें अधिक उद्योगी हिंसा होती हो वह कार्य गृहस्थों को नहीं करना चाहिए। विरोधी हिंसा-अपने प्राणों की रक्षा करने के लिए, अपने धर्म की रक्षा करने के लिए, अपने परिवार की रक्षा करने के लिए, विरोधियों से लड़ाई-झगड़ों में जो हिंसा होती है. उसे विरोधी हिंसा कहते हैं।
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