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है कि रागादि भावों की उत्पत्ति न होना, अहिंसा है और रागादि भावों की उत्पत्ति होना सो हिंसा है। इस प्रकार हिंसा के लक्षण में मन की दुष्प्रवृत्ति पर अधिक बल दिया गया है, क्योंकि अन्तस् की कलुषता ही हिंसा को जन्म देती है।
अहिंसा में प्राणिमात्र के कल्याण की भावना निहित है-अन्य धर्म व संस्कृति अहिंसा का घोष करती हुयीं भी हिंसात्मक कार्यों में अनेक माध्यमों से प्रवृत्त होते हुए देखी जा सकती हैं। किन्तु जैन संस्कृति अपनी कथनी व करनी एक रखने का प्रयत्न करती है। यही कारण है। कि जैनाचार्यों ने समय की गतिविधि को देखते हुए अनेक वैदिक अनुष्ठानों व हिंसात्मक कार्यों का विरोध किया है। यह विरोध जैनधर्म में आविर्भूत दया की भावना का ही प्रतिफल है।
कोई भी व्यक्ति अपने दैनिक जीवन में अकस्मात् परिवर्तन लाकर अहिंसा को उत्पन्न नहीं कर सकता। अहिंसा की उत्पत्ति तो आत्मा में परिवर्तन होने के साथ होती है। आत्मा के परिवर्तन होने का अर्थ , उसे पहिचान लेना। यह परिचय ही निज को जानना है, सारे विश्व को जानना है। जब व्यक्ति इस अवस्था पर पहुँच जाता है तो सब विश्व के जीवों के दुःख का स्पन्दन उसकी आत्मा में ही होने लगता है। यह करुणामय स्पन्दन होते ही हिंसा स्वयं तिरोहित हो जाती है । उसे हटाने के लिए कोई पृथक योजना नहीं बनानी पड़ती। इस प्रकार अहिंसा में मुख्य रूप से प्राणियों के कल्याण की भावना निहित होती है।
हिंसा के भेद
हिंसा के सामान्य रूप से दो भेद है। स्वभावहिंसादि के रूप में इनके भी दो दो भेद होते हैं। (1) भाव हिंसा (2) द्रव्य हिंसा
(अ) स्वभाव हिंसा (ब) परभाव हिंसा (स) स्वद्रव्य हिंसा (र) परद्रव्य हिंसा
(1 ) भावहिंसा - यह भी दो प्रकार की होती है- (अ) स्वभाव हिंसा - जब आत्मा क्रोधादि दुर्भावों से परिपूर्ण होता है, तब वह चाहे दूसरे जीवों की हिंसा करे या न करे, यह पृथक बात है, किन्तु उस समय अपने शान्त स्वरूप, आनन्द एवं ज्ञानादि गुणों का घात कर ही डालता है। यही स्वभाव हिंसा कहलाती है। (ब) परभाव हिंसा - जब आत्मा क्रोधादि कषायों के अन्तर्गत होकर किसी के हृदय को आघात पहुँचाने वाले मर्मभेदी वचन कहता है, या कहलाता है, तब यह परभाव हिंसा कहलाती है।
(2) द्रव्यहिंसा - यह भी दो प्रकार की होती है। (अ) स्वद्रव्य हिंसा - जब जीव दुर्भाव के वश होकर स्वयं के शरीर आदि वाह्य प्राणों का घात कर डालता है, अर्थात् आत्म हत्या करता है, तब वह स्वद्रव्य हिंसा कहलाती है। (ब) परद्रव्य हिंसा - जब जीव दुर्भाव के वश होकर दूसरे के वाह्य प्राणों का घात करता है तब वह परद्रव्य हिंसा कहलाती है। इस प्रकार पर भाव या
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