________________
अहिंसा का स्वरूप-अहिंसा क्या है, इस प्रश्न को महावीर ने बड़ी ही सूक्ष्म और सरल विधि से समझाया। सर्वप्रथम उन्होंने हिंसा का स्वरूप निर्धारित किया। तदोपरान्त उससे विरत होने की क्रिया को अहिंसा का नाम दिया। हिंसा का सर्वांगपूर्ण लक्षण आचार्य उमास्वामी के इस कथन में निहित हैं-कषाय के वशीभूत होकर द्रव्य या भावरूप प्राणों को घात करना हिंसा है। आचार्य कहते हैंप्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणंहिंसा।।
-तत्वार्थसूत्र-अ. 7/13 कषाय-राग-द्वेष अर्थात् अयत्नाचार (असावधानी-प्रमाद) के सम्बन्ध से अथवा प्रमादी जीव के मन-वचन-काय के योग से जीव के भावप्राण, द्रव्यप्राण अथवा इन दोनों का वियोग करना हिंसा है।
इस सूत्र में "प्रमत्तयोगात्" शब्द भाववाचक है। जिसका अर्थ है कि प्राणों के वियोग होने मात्र से हिंसा का पाप नहीं, किन्तु प्रमाद भाव हिंसा है और उससे पाप है। शास्त्रों में कहा गया है कि-प्राणियों के प्राण अलग होने मात्र से हिंसा का बंध नहीं होता, जैसे कि ईर्या समिति वाले मुनि के गमन करते समय पाँव के नीचे यदि कोई जीव आ जाये और पाँव के संयोग से वह मर जावे तो वहाँ उस मुनि के उस जीव की मृत्यु के निमित्त से जरा सा भी बन्ध नहीं होता, क्योंकि उनके भाव में प्रमादयोग नहीं है। यही बात आचार्य अमृतचन्द्र ने इस प्रकार कही है
यत्खलु कषाययोगात्प्राणानां दव्यभावरूपाणाम्। व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा॥
- पुरुषार्थसिद्ध्युपाय 43 कषाय रूप से परिणमित मन-वचन-काय के योग से द्रव्य और भावरूप दो प्रकार के प्राणों का व्यपरोपण करना अर्थात् घात करना निश्चय से भली-भांति निश्चित की गई हिंसा है। आगे आचार्य बताते हैं कि हिंसा और अहिंसा का निश्चय से क्या लक्षण है
अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति। तेषामेवोत्पत्तिर्हिसे ति जिनागमस्य संक्षेपः॥
- पुरुषार्थसिद्ध्युपाय 44 निश्चय से रागादि भावों का प्रकट न होना ही अहिंसा है और उन रागादि भावों का उत्पन्न होना ही हिंसा है। ऐसा सिद्धान्त का सार है। दूसरे शब्दों में आत्मा के शुद्धोपयोगरूप परिणाम का घात करने वाला भाव ही सम्पूर्ण हिंसा है। असत्य वचन आदि पापों के पाँच भेद मात्र शिष्यों को समझाने के लिए उदाहरण रूप कहे हैं। वास्तव में जैनशास्त्रों का यह अल्प शब्दों में रहस्य
272