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________________ से अनुप्राणित था। इसलिए उन्होंने कहा-सभी प्राणी संसार में जीना चाहते हैं। मरना कोई नहीं चाहता। सभी को अपना-अपना जीवन प्यारा है। इसलिए सोते-उठते, चलते-फिरते, छोटे-से-छोटे प्रत्येक कार्य को करते हुए यह भावना अभिव्यक्त होनी चाहिए कि जब मेरी आत्मा सुख चाहती है तो दूसरों को भी सुख भोगने का अधिकार है। जैसे मैं जीना चाहता हूँ, ऐसे ही दूसरे भी जीना चाहते हैं। "जियो और जीने दो" यह अहिंसा का स्वर्णिम सूत्र उसी सर्वभूत दया की भावना से प्रसत है, जहाँ जीव के सारे भेद समाप्त हो जाते हैं। महावीर और अहिंसा आज से लगभग 2600 वर्ष पूर्व पूरे भारत वर्ष में हिंसा का साम्राज्य था। धर्म के नाम पर दंगे, आडम्बर व जीवों का वध किया जाता था। स्वार्थ, असत्य, अनैतिकता चारों ओर व्याप्त थी। धर्म का रूप क्रियाकाण्डों ने ले रखा था। मनुष्यों की पाशविकवृति ने मानव को दानव बना दिया था। पशु-पक्षी, स्त्री आदि जीवों का कोई संरक्षक नहीं था। इनका कोई भी किसी भी रूप में उपयोग कर सकता था। इनकी पुकार सुनने वाला कोई नहीं था। इनको जिन्दा ही यज्ञों में होम कर दिया जाता था। इन पर सर्व सामान्य ही नहीं अपितु सरकार भी ध्यान नहीं देती थी। ऐसी विषम परिस्थितियों में बिहार प्रान्त के वैशाली नगर में राजा सिद्धार्थ और माता त्रिशला के यहां, चैत्र सुदी तेरस के दिन वर्धमान का जन्म होता है। जन्म लेते ही पूरे भारत में शान्ति की लहर छा जाती है। बालक जैसे-जैसे बड़े होते हैं, इनके जीवन में अनेक घटनाएं घटती जाती हैं। एक बार मदोन्मत्त हाथी का मद चूर कर वीर नाम प्राप्त किया। एक बार दो मुनियों की शंका मात्र दर्शन करने से दूर हो जाती है, तब सन्मति नाम पाते हैं। एक बार तरु पर लिपटे विषधर को वश में कर महावीर नाम प्राप्त करते हैं। जब महावीर की आयु तीस वर्ष हुई तो माता-पिता ने विवाह के लिए कहा। इस पर महावीर ने स्पष्ट मना कर दिया और कहा, देश में हा-हाकर मचा हुआ है और मैं विवाह करूँ, पशुओं को मारा जा रहा है, अत: मुझे यह सब भोग-ऐश्वर्य अच्छे नहीं लगते। एक दिन ये सब महल-वैभव छोड़कर वन में पहुँच जाते हैं और निरन्तर 12 वर्ष तक मौन पूर्वक घोर तप करते हैं। आत्मध्यान में लीन हो जाते हैं। बैसाख सुदी दशमी को एक दिन महावीर को केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है। केवलज्ञान के 66 दिन बाद दिव्यध्वनि खिरती है। श्रावण वदी एकम् को दिव्यध्वनि खिरने के कारण इसे हम वीरशासन जयन्ति के रूप में प्रतिवर्ष मनाते हैं। तीस वर्षों तक सम्पूर्ण भारत में विहार करते हुए धर्मोपदेश में ज्ञान गंगा बही उसका साररूप हिंसा का त्याग और अहिंसा का पालन करना ही है। महावीर की अहिंसा को समझने के लिए विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा था-"हिंसा, चाहे किसी भी रूप में हो वह धर्म नहीं हो सकता। 271
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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