________________
दशम अध्याय : व्रत
मनुष्य जीवन में व्रतों का अत्यधिक महत्त्व है। कहा गया है- 'व्रतेन यो बिना प्राणी, पशरेव न संशयः'। व्रतों का प्रधान उद्देश्य आत्मशुद्धि है। जैनधर्म में प्रमुख पांच व्रत हैं- अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, जिनका यहां क्रम से विवेचन किया गया है।
वर्तमान में भगवान् महावीर का शासन काल है। इनके तीन सिद्धान्त हैं-(1) स्याद्वाद और अनेकान्त, (2) अपरिग्रह, (3) अहिंसा। प्रत्येक व्यक्ति के विचारों में अनेकान्त हो, वाणी में स्याद्वाद हो, जीवन में अपरिग्रह हो और आचरण में अहिंसा हो। यही संक्षेप में भगवान महावीर की देशना है।
"अहिंसा" का अर्थ है-"हिंसा नहीं करना" अहिंसासंस्कृति प्रधान जैनधर्म में इसके पूर्ववर्ती समता, सर्वभूतदया, संयम जैसे अनेक शब्द अहिंसक आचरण के लिए प्रयुक्त हुए हैं। अहिंसा का एक अर्थ, पर की सुरक्षा के साथ-साथ अपने आत्मा की सुरक्षा करना भी है। जो मानव स्वयं सुरक्षित होगा वही दूसरों को सुरक्षित रख सकता है। अत: आपको अपनी सुरक्षा स्वयं करनी होगी। अपनी सुरक्षा करोगे तो दूसरों की भी सुरक्षा होगी। जो मानव स्वयं को बनाता और बिगाड़ता है, वह अपने साथ समस्त मनुष्यता और समाज को बनाता और बिगाड़ता है। जो मानव अपने अन्दर शान्ति की आधारशिला स्थापित करता है वह पूरे विश्व के लिए शान्ति का मार्ग खोलता है, दूसरी ओर जब यही मानव अपने भीतर अशान्ति और संताप के बीज बोता है तो सारी मनुष्यजाति के लिए वह वही करता है। इस प्रकार मानव जो अपने साथ करता है वही वह दूसरों के साथ भी करता है। सभी जीवों में आत्मा समानरूप से विद्यमान है, जिसमें हिंसा और अहिंसा किसी न किसी रूप में विद्यमान रहती है। आज विश्व में इतनी अराजकता, इतनी हिंसा, इतनी घृणा, इतनी वैमनस्यता एवं युद्ध की भावना है जिसका इसका मूल कारण केवल अपने आत्मा को न समझना है। आत्मा के अन्दर की आवाज को सुनने का जिनके पास समय नहीं है, मात्र जो भौतिकता के पक्ष में बँधे हैं वही आज इस संसार की विषम स्थिति के लिए उत्तरदायी हैं। भौतिकता ही इनके जीवन का आधार है। वास्तव में जहाँ कहीं भी राग-द्वेषमयी प्रवृत्ति दिखलाई पड़ेगी, वहीं हिंसा किसी न किसी रूप में उपस्थित हो जायेगी। सन्देह, अविश्वास, विरोध, क्रूरता और घृणा का परिहार, प्रेम, उदारता और सहानुभूति के बिना संभव नहीं है। प्रकृति और मानव दोनों की क्रूरताओं का निराकरण संयम द्वारा अर्थात् अहिंसा द्वारा ही संभव है। यही परम धर्म है। अहिंसा का पालन न करने के कारण ही आज धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक सभी क्षेत्रों में चहुँ ओर हिंसा का वर्चस्व है। अहिंसा की मूल भावना प्राणिमात्र को जीने का अधिकार प्रदान करती है। जैनसंस्कृति के नियामकों का हृदय इसी भावना
270