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मुनि
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इस प्रकार उपर्युक्त तीन आचार्यों की परम्परा में आज दिगम्बर मुनिराज विद्यमान हैं। सन् 2002 में वर्तमान दिगम्बर मुनियों व पिच्छीधारी साधुओं की संख्याआचार्य आचार्य कल्प ऐलाचार्य बालाचार्य उपाध्याय
291 गणिनी आर्यिका
10 आर्यिका ऐलक
35 क्षुल्लक क्षुल्लिका
कुल 900 लगभग उपर्युक्त दिगम्बर मुनिराज की विवेचना करने से यह बात सिद्ध हो जाती है कि साधु बहुत कठिन वाह्य और अंतरग तप करते हुए अपने आत्मा के द्वारा अपने आत्मा में समाने के लिए, अनादिकाल से लगे हुए कर्मों की श्रृंखला को तोड़ने के लिए, अपने अलौकिक सुख रूपी अमृत का पान करने के लिए दिगम्बरत्व को प्रकट करते हैं, मात्र दिगम्बर वेष धारण नहीं करते। यही स्थिति संसार में सभी धर्मों के मानने वाली साधुओं में भी कमोवेश पायी जाती है। जैन साधु, साधु परमेष्ठी कहलाते हैं। इनके नाम लेने मात्र से संसारी जीवों के कल्याण का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। इनकी स्तुति में पं. बनारसीदास जी निम्न सवैये में अपने हृदय के उद्गार व्यक्त करते
शीत रितु जोरे तहाँ सब ही सकोरे अंग। तनको न मोरे नदी धोरे धीर जे खरे।। जेठ की झकोरे जहाँ अंडा चील घोरे पशु। पक्षी छाह लोरे गिरि कोर तपते धरे।। घोर घन घोरे घम चहुँ ओर डोरे। ज्यों-ज्यों चलत हिलोरे त्यों-त्यों कोरे बल में अरे॥ देह नेत तोरे परमारथ सो प्रीति जोरे। ऐसे गुरु और हम साथ अंजुलि करे।
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