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________________ जैसा बालक जन्मता है, साधु का रूप वैसा ही नग्न होता है। उसके पास तिल- तुष मात्र भी परिग्रह नहीं होता। यदि कोई साधु थोड़ा-बहुत भी परिग्रह पास रखता है तो वह निश्चित रूप से निगोद जाता है। आगे आचार्य परिग्रह के दोष को और स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि सम्मूहदि रक्खेदि य अहं झाएदि बहुपयत्तेण । सो पावमोहिदमदी तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥ - अष्टपाहुड-लिंगपाहुड 22, निर्ग्रथ नग्न दिगम्बर लिंग धारण करके भी जो बहुत प्रयत्न करके परिग्रह का संग्रह करता है, उसमें सम्मोहित होता है, उसकी रक्षा करता है, उसके लिए आर्त्तध्यान करता है, वह पाप से मोहित बुद्धिवाला श्रमण, श्रमण नहीं अपितु पशु के समान है, अज्ञानी है। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि मोक्षमार्ग में परिग्रह विष के समान है। चौबीस प्रकार के परिग्रहों में चौदह प्रकार के परिग्रह मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया लोभ आदि अन्तरंग परिग्रह माने जाते हैं, जिन्हें पहले छोड़ा जाता है, अन्तरंग से शुद्ध होकर, फिर वाह्य दस प्रकार के परिग्रह क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, कुप्य, भांड आदि परिग्रहों का त्याग किया जाता है, जो कि नग्न दिगम्बर रह कर ही संभव है। इस प्रकार गहराई से विचारने पर यह बात सिद्ध हो जाती है कि दिगम्बरत्व अन्तरंग शुद्धि का प्रमाण है। अन्य मतों में दिगम्बरत्व का महत्त्व - आत्मकल्याण के लिए अन्तरंग शुद्धि अन्तरंग परिग्रहों के त्याग से प्राप्त होती है। अन्तरंग परिग्रहों के त्याग होते ही वाह्य परिग्रहों का त्याग भी सहज रूप से होने लगता है। इसी क्रम में स्वतः ही दिगम्बरत्व प्रकट हो जाता है। यह कल्याण का मार्ग अन्य सभी मतों में ऐसा ही है। यह आश्चर्यजनक प्रमाण है कि समस्त संसार के समस्त मतों के साधुओं में दिगम्बरत्व वेष पाया जाता है, अन्तर केवल इतना है कि आज अन्य मतों के साधुओं में साधना की हीनता के कारण दिगम्बरत्व की मुख्यता नहीं रही, परन्तु जैन साधुओं ने आज भी आत्मसाधना को लक्ष्य में रखने हेतु दिगम्बर वेष को मुख्य रूप से अपनाया हुआ है। प्राचीकाल से ही दिगम्बरत्व आध्यात्म क्षेत्र में उन्नति की पराकाष्ठा का प्रमाण माना जाता रहा है। यहाँ कुछ प्रमाण दृष्टव्य हैं 1. हिन्दू मत में - वैदिक मत में दिगम्बर परमहंस साधु सबसे उत्कृष्ट माने जाते हैं। वे सर्वदा, नग्न रहते थे। शुकदेव जी वैदिक मत में प्रसिद्ध महात्मा हुए हैं, जो सर्वथा नग्न रहते थे। हिन्दू मत में परिव्राजक नग्न नागा साधु रहते हैं। आज भी कुम्भ के मेले में नग्न साधु देखे जा सकते हैं। 265
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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