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दूध चाहिए। अत: दूध के लिए गाय चाहिए, गाय के चारे के लिए जमीन चाहिए। जमीन के लिए दो बैल चाहिए। इस प्रकार सब आवश्यकता पूरी करते जाते हैं महात्मा जी। अब सोचते हैं कि इन सब कार्यों को कौन करेगा? अतः एक स्त्री रखनी चाहिए। सो स्त्री भी रख लेते हैं, अब सोचते हैं बच्चे होंगे तो हाथ बटाएँगें। बच्चे भी हो जाते हैं। इस प्रकार पूरी गृहस्थी महात्मा की बन जाती है। तात्पर्य यह है कि एक लंगोटी रखने मात्र से पूरा गृहस्थ हो जाता है।
इसलिए दिगम्बर मुनिराज अपने पास परिग्रह तिल- तुष मात्र भी नहीं रखते। परिग्रह दुःख - चिंता का कारण बनता है। जहाँ चिंता होगी वहाँ आत्मध्यान नहीं हो सकता और जहाँ आत्मध्यान में तल्लीनता न होगी, वहाँ समता धारण भी नहीं हो सकती।
कर्मों से छुटकारा पाने के लिए पुण्य-पाप को छोड़कर आत्मा में आत्मा के द्वारा ध्यानस्थ होने से ही कल्याण संभव है, अन्यथा नहीं। यह बात अन्य मतों में भी कही गयी है। गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं कि
शुभाशुभफलैरेवं, मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः । संन्यासयोगमुक्तात्मा, विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥
- गीता-अ. 9/28
इस प्रकार कर्मों को मेरे अर्पण करने रूप सन्यास योग से मुक्त हुए मन वाला तू शुभ और अशुभ फल रूप कर्म बन्धन से मुक्त हो जायेगा, और उनसे मुक्त हुआ मेरे अर्थात् आत्मा को ही प्राप्त हो जायेगा। इसी बात को और स्पष्ट करते हुए श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि
बुद्धियुक्तो जहातीह, उभे सुकृतदुष्कृते । तस्माद्यगाय युजस्व, योगः कर्मसु कौशलम् ॥
- गीता-अ. 22/50.
समत्व बुद्धियुक्त पुरुष पुण्यरूप और पापरूप दोनों को इस लोक में ही त्याग देता है। दूसरे शब्दों में उनसे लिप्त नहीं होता, इनसे समत्व बुद्धि योग रूप ही कर्मों से बचाता है अर्थात् योग ही कर्म बन्धन से छूटने का उपाय है।
परिग्रह मोक्षमार्ग में विष के समान है, इस बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि
जहजायरुवसरिसो तिलतुसमेत्तं ण गिण्हदि हत्थेसु । जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तोपुण जाइ णिग्गोदम् ॥
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- अष्टपाहुड-सूत्रपाहुड 18,