________________
गुणों को पालते हैं। ये सब दिगम्बर मुनि के 28 मूलगुण माने जाते हैं, जिनका विस्तृत वर्णन पिछले प्रवचनों में किया जा चुका है। ये दिगम्बर मुनिराज दिन में खड़े-खड़े केवल एक बार ही भोजन ग्रहण करते हैं और वह भी आखड़ी लेकर आहार चर्या को निकलते हैं। कहा भी है कि
एक बार भोजन की बेला मौन साध बस्ती में आवै। जो न बनै योग्य भिक्षा विधि तो महन्त मन खेद न लावै।। ऐसे भ्रमत बहुत दिन बीते तब तप वृद्धि भावना भावें।
यों अलाभ की परम परीषह सहैं साधु सो ही शिव पावै॥ दिगम्बर मुनिराज आहार की चर्या को जाते हुए कैसी-कैसी विधि, आखड़ी लेते हैं ये निम्न दृष्टान्त से और भी स्पष्ट हो जाता है
एक बार की बात है कि उत्तर प्रदेश में ललितपुर के पास मंडावली नामक एक स्थान पर आचार्य शान्तिसागर महाराज (छाणी) विराजमान थे। प्रात: जब आहार चर्या का समय हुआ तो आचार्य श्री आहारचर्या के लिए निकले, लेकिन विधि न मिलने के कारण निराहार लौट आए। आचार्यश्री ने आखड़ी विचित्र ले रखी थी। यदि कोई बैल मिलता है और उसके सींग में गुड़ की भेली लगी हो तथा उस भेली में सरसों के दाने चिपके हों, तभी मैं आहार ग्रहण करूँगा अन्यथा नहीं। ऐसी आखड़ी लेकर आहार चयो को जाते थे।
अद्भुत आखडी आहार चर्या को जाने से पहले प्रत्येक दिगम्बर मुनि अटपटी आखड़ी ले कर जाते हैं कि अमुक का संयोग या दृश्य देखने को मिलेगा तभी आहार ग्रहण करेंगे, अन्यथा नहीं। क्योंकि उसे मिलना न मिलना पूर्व भाग्य पर निर्धारित होता है, किसी वर्तमान पुरुषार्थ पर निर्भर नहीं होता। अत: इस तथ्य की परीक्षा प्रतिदिन आहार को जाते समय आखड़ी लेकर करते हैं। आचार्य शान्तिसागर महाराज को इस प्रकार पूरे सात दिन हो जाते हैं। आहार के लिए विधि नहीं मिलती, निराहार ही रहते हैं। आठवें दिन पुनः जब आहार चर्या को निकलते हैं तो देखते हैं कि एक बैल जा रहा है, सींग में एक गुड़ की भेली फंसी है, जिसमें सरसों के दाने लगे हैं। कुछ समय पहले यह बैल एक बैलगाड़ी में रखी गुड़ की भेलियों में टक्कर मार कर आ रहा था, जिसमें सरसों की बोरियां भी रखी थीं। इस प्रकार एक भेली बैल के सींग में फंस जाती है, तथा कुछ सरसों के दाने इसमें चिपक जाते हैं। इस प्रकार आठवें दिन आचार्यश्री की विधि मिल जाती है और आहार हो जाता है। इस प्रकार की चर्या दिगम्बर मुनिराजों की ही होती है, जो सिद्ध करता है कि ये आहार केवल अपनी क्षुधा को शान्त करने के लिए नहीं लेते हैं, अपितु तप तथा ज्ञानवृद्धि के लिए ही ग्रहण करते हैं।
259