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दर्शन - ज्ञान - स्वभावी जिसने सब विकार ही वमन किये। परम ध्यान गोचर परमातम, परम देव मम हृदय रहे || दिगम्बर साधु शत्रु और मित्र को, महल और श्मशान को, सोना और काँच को, निन्दा और स्तुति को, पूजा करने वाले और तलवार से घात करने वाले को एक समान समझते हैं, कोई भेद नहीं करते हैं।
अपने भीतर से सब क्रोध-मान आदि कषाय, मिथ्यात्व, अविरति सब विकारों का नाश करके अपने दर्शन -ज्ञान-स्वभावी आत्मा मे रहते हैं। आत्म ध्यान में मग्न रहते हैं, ऐसे दिगम्बर मुनिराज होते हैं। इस प्रकार दिगम्बर साधु छहंकाय के जीवों की हिंसा के त्यागी होते हैं। यही बात अन्य मतों में भी कही गयी है। गीता में श्री कृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं कि
समः शत्रो मित्रे च तथा मानापमानयोः । शीतोष्णसुखदुःखेषु, समः संगोपार्जितः ||
- गीता-अ 12/18
जो पुरुष, शत्रु और मित्र में, मान और अपमान में, शरद ऋतु और ग्रीष्म ऋतु में, सुख और दुःख में एक समान रहता है; संसार में आसक्ति नहीं रखता, वही साधु कहलाता है। ये पाँच महाव्रतों के धारी दिगम्बर वीतरागी सन्त शील के अट्ठारह हजार भेदों का पालन करते हैं। ये साधु चौदह प्रकार के अन्तरंग और दस प्रकार के बहिरंग परिग्रह के त्यागी होते हैं। प्रमाद छोड़कर चार हाथ आगे भूमि देखकर ये गमन करते हैं, इसलिए उनके ईर्या समिति होती है। उनके मुख से सदा हित- मित-प्रिय वचन निकलते हैं, जो सुनने वाले को शान्ति प्रदान करते हैं। इसे ही भाषा समिति कहते हैं। ये मुनिराज छियालिस दोषों को टालकर कुलीन श्रावक के घर तप की वृद्धि हेतु अल्प आहार लेते हैं। शरीर की पुष्टि के लिए और स्वाद के लिए ये मुनिराज आहार नहीं करते, अपितु रसों को छोड़कर नीरस आहार करते हैं। इसे ही एषणासमिति कहते हैं। पवित्रता के उपकरण कमण्डलु, ज्ञान का उपकरण शास्त्र और संयम के उपकरण पिच्छी को, देखकर उठाते - धरते हैं। इसे ही आदान-निक्षेपण समिति कहते हैं। ये मुनिराज मन-वचन और काय को वश में करके आत्म चिन्तन करते हैं, जंगल में पशु इनकी ध्यान लीन अचल मुद्रा को देखकर पत्थर समझकर उनके शरीर से अपने शरीर की खाज खुजाया करते हैं। पाँचों इन्द्रियों में
शुभ और अशुभ, स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द हैं, उनमें राग-द्वेष नहीं करते हैं, इसलिए ये पंच इन्द्रिय विजय कहलाते हैं। ये मुनिराज सामायिक, स्तुति, जिन वन्दना, स्वाध्याय, प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग प्रतिदिन नियम से करते हैं। जिन्हें षट्आवश्यक कहते हैं। इसके अतिरिक्त ये स्नान नहीं करते, दातुन नहीं करते, जमीन पर रात्रि के पिछले प्रहर में अल्प निंद्रा लेना आदि अन्य सात
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