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________________ नवम अध्याय : दिगम्बर मुनिराज दिगम्बर मुनि के सन्दर्भ में कविवर बनारसीदास जी का निम्न सवैया दृष्टव्य है ग्यान को उजागर सहज-सुखा सागर, सुगुन-रतनाकर विराग-रस भरयौ है; सरन की रीति हरै मरनको न भै करै, करन सौ पीठि दे चरन अनुसरयौ है; धरम को मंडन भरम को विहंडन है, परम नरम के करमसौ लरयौ है; ऐसौ मुनिराज भुवलोक में विराजमान, निरखि बनारसी नमस्कार करयो है। ज्ञान को प्रकट करने वाले, सुख के सागर में गोता लगाने वाले, वैराग्य रस से परिपूर्ण गुणों की खान मुनिराज होते हैं। जो इनकी शरण में जाता है, उसका सब दुःख दूर हो जाता है तथा वह मरण भय से मुक्त हो जाता है। धर्म की पताका फहराने वाले और भ्रम का नाश करने वाले परम दयालु दिगम्बर मुनिराज इस पृथ्वी लोक पर विराजमान हैं, उनको मैं हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ। दिगम्बर साधु का स्वरूप-जो अपने आत्मस्वरुप की साधना करते हुए पाँच महाव्रतों को धारण करते हैं, पाँच समितियों को पालते हैं, तीन गुप्तियों से सुरक्षित होते हैं। ऐसे साधु अट्ठारह हजार शील के भेदों को और चौरासी लाख उत्तरगुणों को पालते हैं, वे साधु परमेष्ठी कहलाते हैं। वे सिंह के सामन पराक्रमी, हाथी के समान स्वाभिमानी, बैल के समान भद्र, मृग के समान सरल, गाय के समान गोचरी वृत्ति करने वाले, पवन के समान नि:संग, सूर्य के समान तेजस्वी, सागर के समान गम्भीर, सुमेरु के समान अकम्प, चन्द्रमा के समान शीतल और पृथ्वी के समान सहनशील होते हैं। दिगम्बर का शाब्दिक अर्थ-"दिगम्बर" दो शब्दों से मिलकर बना है। दिग्+अम्बर। दिग् का अर्थ होता है "दिशा" और "अम्बर" का अर्थ होता है, "वस्त्र" अर्थात् दिशा ही जिसके वस्त्र हैं, ऐसे यथाजात रूप साधु दिगम्बर मुनिराज कहलाते हैं। दिगम्बर मुनि वीतरागी संत होते हैं-दिगम्बर मुनिराज न किसी से राग करते हैं और न किसी से द्वेष करते हैं। कहा भी है कि अरि मित्र महल-मसान-कंचन, काँच निन्दन थुति करन। अर्घावतारण असि प्रहारन, में सदा समता धरन॥ - 257)
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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