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________________ सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जरा। (तत्वार्थसूत्र अ. ९/४५,). सम्यग्दृष्टि पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक, विरतमुनि, अनन्तानुबन्धिवियोजक, दर्शनमोहक्षपक; उपशमक, उपशान्तमोह, क्षपक, क्षीणमोह और जिन इन सभी की प्रतिसमय क्रम से असंख्यात गुणी-असंख्यात गुणी कर्मों की निर्जरा होती है। ___ तात्पर्य यह कि सम्यग्चारित्र का आधार आत्मा में स्थिरता है। इसके स्थाई होने से शुक्लध्यान की उत्पत्ति होती है। शुक्लध्यान का फल मोक्ष प्राप्ति है क्योंकि वीतराग चारित्र अर्थात् आत्मध्यान की यह महिमा है कि जीव अन्तर्मुहूंत में ही शुक्लध्यान के बल पर कर्मों की श्रृंखला तोड़कर केवलज्ञान प्राप्त कर सकता है। दूसरे शब्दों में सम्यग्दर्शन की पूर्णता 12 वें गुणस्थान में, सम्यग्ज्ञान की पूर्णता 13 वें गुणस्थान में और सम्यक्चारित्र की पूर्णता 14 वें गुणस्थान में होती है। इस प्रकार जीव मोक्षमार्ग की ओर क्रम से वृद्धि करता हुआ अनादि कर्मों की श्रृंखला को सदा के लिए तोड़ता हुआ मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। अपनी निधि तो अपने में है, वाह्य वस्तु में व्यर्थ प्रयास। जग का सुख तो मृग-तृष्णा है, झूठे हैं उसके पुरुषार्थ। अक्षय है शाश्वत है आत्मा, निर्मल ज्ञान स्वभावी है। जो कुछ बाहर है सब पर है, कर्माधीन विनाशी है॥ इस सत्य से अनभिज्ञ ही रहते सदा बहिरातमा। पहिचानते निजत्व जो वे ही विवेकी आतमा। निज आतमा को जानकर निज मैं जमे जो आतमा। वे भव्यजन बन जायेंगे पर्याय में परमातमा॥ 256
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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