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________________ एक्त्ववितर्क बारहवें गुणस्थान में होता है। इससे अन्तराय कर्म का क्षय होता है। ये दोनों ध्यान अर्थात् पृथक्त्ववितर्क शुक्लध्यान और एकत्ववितर्क शुक्लध्यान पूर्ण ज्ञानधारी श्रुतकेवली के होते हैं। यह कथन बहुलता की अपेक्षा से है, अपवाद कथन इसमें गौण रूप से समाहित हो जाता है (उदाहरण-शिवभूति मुनि)। शुक्लध्यान के बाकी दो भेद सूक्ष्म, क्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवर्ति ये दोनों ध्यान केवली भगवान के होते हैं। तेहरवें गुणस्थान के अन्तिम भाग में शुक्लध्यान का तीसरा भेद होता है, उसके बाद चौथा भेद चौदहवें गुणस्थान में प्रकट होता है। आचार्य उमास्वामी ने शुक्लध्यान के चार भेद बताये हैं पृथक्त्वैकत्ववितर्कसूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्युपरतक्रियानिवर्तीनि।। ___ पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवर्ति-ये शुक्लध्यान के चार भेद हैं। पहला पृथक्त्ववितर्क ध्यान मन-वचन और काय इन तीन योगों के धारण करने वाले जीवों के होता है। इसमें आठ से ग्यारह तक गणस्थान आते हैं। दसरा एकत्ववितर्क ध्यान तीन में से किसी एक योग के धारक के होता है। यह 12 वें गुणस्थान में होता है। तीसरा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान मात्र काययोग के धारण करने वाले के होता है। यह 13 वें गुणस्थान के अन्तिम भाग में होता है। चौथा व्युपरतक्रियानिवर्ति ध्यान योग रहित-अयोगी जीवों के होता है। यह 14 वें गुणस्थान में होता है। आचार्य आगे कहते हैं कि- एकाश्रये सवितर्कवीचारे पूर्वे।।(त.सू./अ. 9/41) आदि के दो शुक्लध्यान श्रुतकेवली के द्वारा आरम्भ किये जाते हैं, अतः एकाश्रय हैं तथा वितर्क और विचार से युक्त हैं। परन्तु, अवीचार द्वितीयम् (त.सू./अ. 9142) ऊपर कहे गये शुक्ल ध्यानों में से दूसरा शुक्ल ध्यान विचार से रहित है, किन्तु सवितर्क होता है। वितर्क का लक्षण बताते हुए आचार्य कहते हैं कि- 'वितर्कः श्रुतम् ॥(त.सू./अ. 9/43) श्रुतज्ञान को वितर्क कहते हैं। अब वीचार का लक्षण बताते हुए कहते हैं कि- 'वीचारोऽर्थव्यंजनयोग संकान्ति(त.सू/अ. 9/44) अर्थ, व्यंजन और योग का बदलना, वीचार है। अर्थ संक्रान्ति-अर्थ का तात्पर्य है ध्यान करने योग्य पदार्थ और संक्रान्ति का अर्थ है बदलना। ध्यान करने योग्य पदार्थ को छोड़कर उसकी पर्याय का ध्यान करे और पर्याय को छोड़कर द्रव्य का ध्यान करे, इसे अर्थ संक्रान्ति कहते हैं। व्यंजन संक्रान्ति-व्यंजन का अर्थ है वचन और संक्रान्ति का अर्थ है बदलना। श्रुत के किसी एक बचन को छोड़कर अन्य का अवलम्बन करना तथा उसे छोड़कर किसी अन्य का अवलम्बन करना, इसे व्यंजन संक्रान्ति कहते हैं। योग संक्रान्ति-काय योग को छोडकर मनोयोग या वचनयोग को ग्रहण करना और उसे छोडकर अन्य किसी योग को ग्रहण करना, योग संक्रान्ति है। आचार्य उमास्वामी पात्र की अपेक्षा से निर्जरा में होने वाली हीनाधिकता बतलाते हुए कहते हैं कि - 2554
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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