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दर्शन-ज्ञान-स्वभावी जिसने, सब विकार ही वमन किये।
परम् ध्यान गोचर परमातम, परम देव मम हृदय रहे। आत्म ध्यान से आत्मा में स्थिरता-वीतराग चारित्र ही सम्यक्चारित्र होता है, इसी से आत्मा में स्थिरता आती है। वैसे तो वीतराग चारित्र का अंश चौथे गणस्थान से शरू हो जाता है, किन्तु मुख्यता शुभभाव की रहती है। जितने अंश में शुद्ध भाव होते हैं, उतने ही अंश में वीतराग चारित्र प्रकट होता है। यह शुभभाव मुख्यतः छठे गुणस्थान तक चलता है। सातवें गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक वीतराग चारित्र को मुख्यता रहती है अर्थात् इस बीच शुद्ध भाव ही प्रधान रहते हैं।
सातवें गुणस्थान के दो भेद हैं- स्वस्थान अप्रमत्तविरत और सातिशय अप्रमत्तविरत 1. स्वस्थान अप्रमत्तविरत-इस गुणस्थान में जीव सातवें से छठे और छठे से सातवें में हजारों
बार उतरता चढ़ता रहता है। दूसरे शब्दों में शुद्ध से शुभ और शुभ से शुद्धभाव में झूलता
रहता है। इसे ही स्वस्थान अप्रमत्तविरत कहते हैं। 2. सातिशय अप्रमत्तविरत-श्रेणी चढ़ने के सम्मुख जो परिणाम होते हैं, उसे सातिशय
अप्रमत्तविरत गुणस्थान कहते हैं। श्रेणी दो प्रकार की होती है- (अ) उपशम श्रेणी- इसमें चारित्र मोहनीय की 21 प्रकृतियों का उपशम होता है। इसमें द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि दोनों श्रेणी चढ़ सकते हैं। ये दोनों आठवें, नवमें, दसवें और ग्यारहवें-गुणस्थान तक चढ़ते हैं। फिर ग्यारहवें गुणस्थान से नियम से गिरते हैं। द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि पहले गुणस्थान तक गिर सकता है, किन्तु क्षायिक सम्यग्दृष्टि चौथे गुणस्थान से नीचे नहीं गिरता। ब. क्षपक श्रेणी-इसमें चारित्र मोहनीय की 21 प्रकृतियों का क्षय किया जाता है। इसमें
आठवाँ, नववाँ, दसवाँ और बारहवॉ-ये चार गुणस्थान होते हैं। इस श्रेणी में केवल क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही चढ़ता है, द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि नहीं। इस प्रकार यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि चौथे गुणस्थान में वीतराग चारित्र कैसे गृहस्थ को हो सकता है, इसका समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं कि चौथे गुणस्थान में वीतराग चारित्र पूर्ण नहीं, आँशिक है, जैसे मुनिराज छठे गुणस्थान में सातवें गुणस्थान से आते हैं, वहाँ
उनके आँशिक वीतराग चारित्र होता है। आत्मा में स्थिरता से शुक्लध्यान की उत्पत्ति-आत्मा में स्थिरता से शुक्ल ध्यान की उत्पत्ति होकर केवलज्ञान प्राप्त होता है। शुक्लध्यान से सम्यग्चारित्र की पूर्णता होती है। शुक्लध्यान का प्रारम्भ आठवें गुणस्थान से होकर क्षपक श्रेणी में दसवें तक और उपशम श्रेणी में ग्यारहवें गुणस्थान तक रहता है। यह बात पृथकत्ववितर्क शक्लध्यान के सम्बन्ध में कही गयी है। इसके निमित्त से मोहनीयकर्म का क्षय या उपशम होता है। दूसरा शुक्लध्यान का भेद
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