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एकत्रित होने लगी । धराशायी अशोक वृक्ष के पास राजा को बैठकर आँसू बहाते हुए सभी ने देखा सभी आश्चर्य चकित रह जाते हैं। प्रजाजन यह करुण दृश्य देखकर द्रवित हो उठते हैं। तभी एक वृद्ध सज्जन से रहा नहीं गया और राजा से इस रहस्य को पूछने का साहस कर ही बैठा । वृद्ध ने राजा से बड़े विनम्र होकर कहा- "हे नर श्रेष्ठ राजन्! आपके द्वारा लाखों की लागत से बनवाये गये काष्ठ महल जल जाने पर भी आप दुःखी नहीं हुए, फिर इस वृक्ष के धाराशायी होने पर आप इतने दुःखी क्यों हो रहे हैं, इतना ज्यादा शोक क्यों मना रहे हैं?" राजा उत्तर देता है- "अगर मैं चाहूँ तो काष्ठ महल को और अधिक कुशल कारीगरों को लगाकर एक या दो माह में बनवा सकता हूँ लेकिन प्रकृति द्वारा निर्मित 80 वर्ष पुराने अशोक का वृक्ष फिर से लगाने की स्थिति मेरी नहीं है। एक या दो तो क्या, 50 वर्षों में भी ऐसा वृक्ष मैं नही उत्पन्न कर सकता। महल में थोड़े से व्यक्ति रह सकते हैं, पर इसकी छाया से न जाने कितने राहगीरों को ग्रीष्मऋतु से राहत मिलती थी।" राजा का उत्तर सुन वृद्ध निरुत्तर हो जाता है। वह समझ जाता है कि राजा की दृष्टि अशोक वृक्ष रूपी संयम, चारित्र अर्थात् 'स्व' पर है यदि इस स्व आत्मा की विराधना या हानि होती है तो शोक करने योग्य है, क्योंकि चारित्र का ह्रास होना असली हास है। दूसरी और काष्ठ का महल पुद्गल है, बनना नष्ट होना इसका स्वभाव है, अतः इसमें दुःख करने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसलिए राजा काष्ठ महल के नष्ट होने पर कोई दुःख नहीं करता। इस प्रकार की दृष्टि सम्यग्दृष्टि होती है, अर्थात् जब जीव को स्व और पर का ज्ञान हो जाता है तब वह संसार परिभ्रमण को समाप्त करने में सक्षम होता है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप परिणत आत्मा को कैसे अपने स्वरूप का ज्ञान होता है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि
अहमेक्को खलु सुद्धो दसणणाण मइओ सदारुवी । वि अस्थिमज्झकिंचि वि अण्णं परमाणुमेत्तंपि ॥
- समयसार 38
मोक्षमार्गी यह जानता है कि निश्चय से मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शन, ज्ञान मय हूँ, सदा अरूपी हूँ पर द्रव्य, परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है। ऐसा मानकर ही आत्मा में स्थिर हुआ जाता है। दूसरे शब्दों में आत्मा अनादि काल से मोह के उदय से अज्ञानी था, अब वह गुरुओं के उपदेश से और स्व-कालब्धि से ज्ञानी हुआ तथा अपने स्वरूप को परमार्थ से जाना कि मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, अरूपी हूँ, दर्शन ज्ञानमय हूँ। ऐसा जानने से मोह का समूल नाश हो गया और अपनी स्वरूप संपदा अनुभव में आई, तब पुनः मोह कैसे उत्पन्न हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता है। इस बात को स्पष्ट करते हुए एक कवि का निम्न दोहा दृष्टव्य है
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