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________________ शुद्ध नय का ज्ञान आवश्यक - आत्मा में स्थिर होने केलिए शुद्धनय को जानना आवश्यक है। इस सन्दर्भ में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि जो पस्सदि अप्पाणं, अबद्धपुटुं अणण्णयं णियदं । अविसे समसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि ॥ जो नय आत्मा को बन्ध रहित और पर के स्पर्श से रहित अन्य के संयोग से रहित, चला चलता रहित और विशेष रहित, अन्य संयोग से रहित - भावों से देखता है, जानता है, उसे शुद्ध नय समझना चाहिए। दूसरे शब्दों में आत्मा पाँच प्रकार से अनेक रूप दिखाई देती है। प्रथम-अनादि काल से कर्म पुद्गल के सम्बन्ध से बँधा हुआ, कर्म पुद्गल के स्पर्श वाला दिखाई देता है; द्वितीय-कर्म के निमित्त से होने वाली मनुष्य, नरक आदि की पर्यायों में भिन्न स्वरूप से दिखाई देता है; तृतीय - शक्ति के अंश घटते भी है और बढ़ते भी है; इस वस्तु स्वभाव से यह आत्मा नित्य-नियत एक रूप दिखाई नहीं देता; चतुर्थ- वह दर्शन ज्ञान आदि अनेक गुणों से विशेष रूप दिखाई देता है, पंचम- कर्म निमित्त से होने वाले मोह, राग-द्वेष आदि परिणामों सहित वह सुख-दुख रूप दिखाई देता है। यह सब अशुद्ध द्रव्यार्थिक व्यवहारनय का विषय है। इस दृष्टि को बदलना होगा, इसी बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य आगे कहते हैं कि जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुत्रं अणण्णमविसेसं । अपदेससंतमज्झं पस्सदि जिणसासणं सव्वं ॥ जो पुरुष आत्मा को अबद्ध स्पष्ट, अनन्य, अविशेष देखता है, वह सर्व जिनशासन को देखता है, जिनशासन बाह्य द्रव्यश्रुत तथा अभ्यंतर ज्ञान रूप श्रुत वाला है। दूसरे शब्दों में, आत्मा को ही ज्ञान और ज्ञान को ही आत्मा माने, देखे, अनुभूति करे तब सम्यक् चारित्र प्रकट होकर आत्मा में स्थिरता होती है, अन्यथा नहीं। यही शुद्ध दृष्टि है, यही परमार्थ दृष्टि है। इस बात को निम्न दृष्टान्त द्वारा समझा जा सकता है चारित्र रूपी अशोक वृक्ष एक राजा ने काष्ठ कला से निपुण कारीगरों को एकत्रित कर एक अभूतपूर्व लकड़ी के महल का निर्माण करवाया। दैवयोग से उसके उद्घाटन के दो दिन बाद ही लकड़ी के महल में आग लग जाती है। क्षणभर में सारा महल धूं-धूं कर जल जाता है। नगर के प्रजाजन राजा को सांत्वना देने हेतु राजदरबार में आते हैं। लेकिन सभी प्रजाजन यह देखकर आश्चर्य में पड़ जाते हैं कि काष्ठ का महल जल जाने से राजा को थोड़ा भी दुःख नहीं हुआ। कुछ समय बाद एक बड़ा तूफान आया। राजमहल के सामने खड़ा एक अशोक वृक्ष आँधी से धराशायी हो जाता है। जब यह खबर नगर में फैली तो जनता राजा के इस दृश्य को देखने 252
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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