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________________ थोड़ी देर में आता हूँ"। साधु महाराज ध्यान में मग्न थे, उन्होंने कुछ भी नहीं सुना कहा। ग्वाले ने समझा कि मौन ही इन की स्वीकृति है। ग्वाले को क्या मालूम कि वीतरागी सन्त कैसे होते हैं, वह तो प्रथम बार दिगम्बर मुद्रा को देख रहा था। उनकी निश्चल साधना को देखकर वह कुछ समझ नहीं पाया था। अतः उन्हें साधारण शान्त मनुष्य समझ रहा था। ग्वाला कहता है"ठीक है, आपका मौन होगा, कोई बात नहीं, मैं समझ गया हूँ, मैं जा रहा हूँ, जरा ध्यान रखना"। यह कहकर वह चला जाता है। जब लौटकर आता है तो वहाँ पर एक भी अपना पशु नहीं पाता। सब इधर-उधर हो जाते हैं। इस पर वह साधु महाराज पर बहुत नाराज होता है। कहता है- "कहाँ गये मेरे पशु, तुम यहाँ पर खड़े-खड़े उन्हें रोक भी नहीं सके। उन्हें जरा रोक लेते तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाता? "महाराज मौन खड़े है", नासाग्र दृष्टि है। पुनः ग्वाला कहता है कि- "तुम मुख से कुछ बोलते क्यों नहीं हो? मेरी बात क्या तुम सुन नहीं रहे हो ? " फिर कहता है कि - "क्या तुम बहरे हो", ग्वाला कुछ उत्तर नहीं पाता । सोचता है शायद यह बहरे हैं। व्यर्थ ही है इनके पास अपना समय खराब करना । शायद पागल हों। मात्र नीची दृष्टि किये खड़े हैं। पुनः ग्वाला इनको कुछ हिलाता - डुलाता है किन्तु साधु महाराज के होंठ नहीं खुलते हैं, उनका ध्यान भंग नही होता है। अन्त में निराश होकर ग्वाला जंगल में अपने पशु खोजने चला जाता है। शाम तक जंगल में भटकता है। लौटकर वह देखता है कि सारे पशु साधु : के पास खड़े हैं। वह कहता है- "अरे यह साधु तो बड़ा ही चालबाज है, धोखें बाज है, बहुत होशियार है। मेरे पशुओं को इसने कहीं छिपा रखा था, अब भागने की तैयारी कर रहा है। मुझे दूर से देखकर पुनः मौन लेकर खड़ा हो गया है। रात में पशुओं को लेकर जरूर भाग जाता।" ग्वाला अब क्रोध में आ जाता है और जोर से चिल्लाकर कहता है- मैं देखता हूँ तुम्हारा बहरा - गूंगापन और वह उन्हें लकड़ी से मारना शुरू कर देता है। जंगल का देवता यह देख घबरा जाता है, क्योंकि वन देवता को मालूम है कि ये वीतरागी संत हैं, ऐसा देव पुरुष मुश्किल से ही देखने को मिलता है। वन देवता पास आता है और साधु महाराज से आज्ञा माँगता है- "कि आप हमें आज्ञा दे दो, हम इस ग्वाले को इसकी करनी का सबक सिखा दें। हम तुम्हारी रक्षा करना चाहते हैं । पुनः ऐसी अप्रिय घटना नहीं घटने देंगे। "किन्तु ध्यान मग्न साधु तो आत्मा के रस में डूबे थे। उन्हें वाह्य जगत् से कुछ लेना-देना नहीं था। वह अपनी आत्मा में स्थिर थे। अतः उन्होने ग्वाले की आवाज नहीं सुनी, शरीर पर हमले को नहीं अनुभव किया बल्कि आत्म-चिन्तन में खो गये कि चलो अच्छा ही हुआ कि कर्मों की उदीरणा का अवसर मिला, यह कार्य आज नहीं तो कल समाप्त होना ही था। यह शरीर आज नहीं तो कल अर्थी बन मरघट तक जाता, वहाँ पर जलता- भुनता, राख होता, और समाप्त हो जाता। सोचता रहा मुनि महाराज के जीव का इस शरीर से क्या लेना-देना वह मिट्टी है, मिट्टी में मिल जाना है। शरीर ने काफी हाथ-पैर जोड़े, मिन्नत की, कि मेरी रक्षा करो है, आत्मन मुझे बचाओ लेकिन आत्मज्ञ पुरुष ने किंचित भी ध्यान नहीं दिया। इस प्रकार स्व और पर का भेदज्ञानी ही अपने आत्मा में स्थिर हो सकता है तथा सम्यग्चारित्र प्रकट कर कम समय में मोक्ष प्राप्त कर लेता है। 251
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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