________________
मोक्षमार्ग में वीतराग चारित्र की प्रधानता - वीतराग चारित्र के अभाव में आत्मा में स्थिरता नहीं हो सकती। शुद्ध परिणामों के द्वारा ही वीतराग चारित्र धारण किया जाता है। इस बात को आचार्य योगीन्दु देव इस प्रकार कहते हैं कि
सिद्धिहिं केरा पंथडा भाउ विसुद्धउ एक्कु । जो सुभावह मुणि चलइ सो किय होइ विमुक्कु ॥
एक शुद्ध भाव ही है, जो मुनि उस शुद्ध भाव से चलायमान हो जावे, वह कैसे मुक्त हो सकता है, अर्थात् किसी प्रकार नहीं हो सकता। दूसरे शब्दों में जो समस्त शुभाशुभ संकल्प-विकल्प से रहित जीव का शुद्ध भाव है, वही वीतराग भाव है तथा वही निश्चय रत्नत्रय स्वरूप मोक्ष का मार्ग है। जो मुनि शुद्धात्मपरिणाम को छोड़ देता है, वह मोक्षमार्ग नहीं बना सकता है। मोक्ष का मार्ग एक शुद्ध भाव है जिसके द्वारा आत्मा में स्थिर हुआ जा सकता है, अन्यथा नहीं। इस प्रकार जो निर्विकल्प आत्मभाव से शून्य है, वह शास्त्र अध्ययन तथा तपश्चरण करता हुआ भी निश्चय को नहीं जानता। इस बात को स्पष्ट करते हुए आगे आचार्य कहते हैं कि -
बुज्झइ सत्थई तउ चरह पर परमत्थु ण वेइ । ताव ण मुंचइ जाम णवि इहु परमत्थु मुणेई ||
जो शास्त्रों को जानता हुआ तपस्या करता है किन्तु परमात्मा को नहीं जानता है, उसका सब जानना, तपस्या करना व्यर्थ है। क्योंकि परमात्मा को जाने बिना व अनुभव किये बिना मुक्ति संभव नहीं है। दूसरे शब्दों में यद्यपि व्यवहार नय से आत्मा शास्त्रों से जाना जाता है, तो भी निश्चयनय से वीतराग एवं संवेदन ज्ञान से ही यह आत्मा जाना जाता है। वाह्य अनशन आदि तप करके व्यवहार से ऐसा कहा जाता है कि इनके बिना आत्मा में स्थिर नहीं हुआ जा सकता किन्तु निश्चय नय से निर्विकल्पक वीतराग चारित्र से ही आत्मा की सिद्धि होती है इस प्रकार तब तक निज शुद्धात्म तत्त्व के स्वरूप का आचरण नहीं है, जब तक कर्मों से नहीं छूट सकते हैं। आचार्य कहते हैं कि जो जीव शास्त्र को पढ़कर भी संकल्प-विकल्प को नहीं छोड़ता है वह निश्चय ही शुद्धात्मा को नहीं जान सकता, अतः वह मूर्ख ही है। क्योंकि शास्त्र के अभ्यास का फल यह है कि रागदि विकल्प दूर हो और निज शुद्धात्मा का ध्यान करे। वीतराग चारित्र को धारण कर मुनिराज की वाह्य स्थिति कैसी हो जाती है, यह निम्न दृष्टान्त से स्पष्ट हो जाती है।
वीतराग साधु और ग्वाला
एक वीतरागी साधु किसी जंगल में ध्यान मग्न खड़े हैं। एक ग्वाला उनके पास जाता है। और कहने लगता है कि "आप मेरे पशुओं को देखते रहना, मैं नहा-धो कर, खाना खाकर
250